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रघुवंश
29 उद्वन्ध केशश्च्युत पत्रलेखो विश्लेषिमुक्ताफल पत्रवेष्टः। 16/67 यद्यपि स्नान के कारण बाल खुल जाने से, चित्रकारी के धुल जाने से, तथा मोतियों के कर्ण फूल कान से निकल जाने से। तं धूपाश्यान के शान्तं तोयनिर्णिक्त पाणयः। 17/22
धूप से सुगंधित केश वाले राजा अतिथि को। 4. शिरोरुह :-बाल।
धूम धुम्रो वसागंधी ज्वालाबभ्र शिरोरुहः। 5/16 उसका रंग धुएँ जैसा काला था, देह से चर्बी के गंध निकल रही थी, आग की लपटों के समान उसके बिखरे हुए बाल थे।
अलक्तक
1. अलक्तक :-[न रक्तोऽस्मात्, यस्य लत्वम्-स्वार्थे कन्] महावर, कुछ वृक्षों
से निकलने वाली राल। चूर्णं ब्र(लुलितस्रगाकुलं छिन्नमेखलमलक्तकांकितम्। 19/25 फैले हुए केशर के चूर्ण से सुनहरा दिखाई देता था, मसली हुई मालाएँ और टूटी
हुई तगड़ियाँ पड़ी रहती थीं और महावर की छाप पड़ी रहती थी। 2. चरणराग :- महावर।
स चरणरागमादधे योषितां न च तथा समाहितः। 19/26 कभी-कभी वह स्वयं स्त्रियों के पैरों में महावर लगाने बैठ जाता था, पर
भली-भाँति नहीं लगा पाता था। 3. द्रवराग :- महावर।
प्रसाधिकालंबितमग्र पादमाक्षिप्य काचिद्वरागमेव। 7/7 एक दूसरी स्त्री अपनी शृंगार करने वाली दासी से पैरों में महावर लगवा रही थी, वह भी उससे पैर खींचकर।
अवतंस
1. अवतंस :-[अव+तंस्+घञ्] हार, कर्णाभूषण, कान का गहना।
यवांकुरापांडु कपोल शोभी मयावतंस: परिकल्पितस्ते। 13/49 जिसकी कोंपल का कर्णफूल बनाकर मैंने तुम्हारे कान में पहनाया था और जो तुम्हारे जौ के अंकुर के समान पीले गालों पर लटकता हुआ।
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