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रघुवंश
तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। 3/62 उनकी इस अद्वितीय वीरता को देखकर इन्द्र बड़े संतुष्ट हुए। ठीक भी था,
क्योंकि गुणों का आदर सर्वत्र होता ही है। 29. शक्र :-[शक् + रक्] इन्द्र।
पुरा शक्रमुपस्थाय तवोर्वी प्रति यास्यतः। 1/75 बहुत दिन हुए जब तुम स्वर्ग से इन्द्र की सेवा करके पृथ्वी को लौट रहे थे। धनुर्भृतामग्रत एव रक्षिणां जहार शक्रः किल गूढविग्रहः। 3/39 इन्द्र को यह बात खटकी और उन्होंने अपने को छिपाकर धनुषधारी रक्षकों के देखते-देखते उस घोड़े को चुरा लिया। जहार चान्येन मयूर पत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम्। 3/56 फिर रघु ने मोर के पंख वाले दूसरे बाण से इन्द्र की वज्र जैसी ध्वजा को काट डाला। पक्षच्छेदोद्यं शक्रं शिलावर्षीव पर्वतः। 4/40 जैसे पत्थर बरसाने वाले पहाड़ ने पत्थर बरसाकर पर्वतों के पंख काटने वाले इन्द्र का सामना किया था। अतिष्ठदेकोन शतक्रतुत्वे शक्राभ्यसूयाविनिवृत्तये यः। 6/74 जो केवल निन्यानवे यज्ञ करके ही इसलिए चुप हो गए, कि कहीं सौ यज्ञ पूरे
करने से इन्द्र को कष्ट न हो। 30. शतक्रतु :-[दश दशतः परिमाणस्य :-दशन् + त, श आदेशः नि० साधु: +
क्रतुः] इन्द्र का विशेषण। अपूर्णमेकेन शतक्रतूपमः शतं क्रतूनामपविध्नमाप सः। 3/38 इन्द्र के समान प्रभावशाली दिलीप ने निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ बिना बाधा के पूरे कर लिए। तथा विदुर्मी मुनयः शतक्रतुं द्वितीयागामी न हि शब्द एषः नः। 3/49 वैसे ही मुनि लोग शतक्रतु (सौ यज्ञ करने वाला) केवल मुझे ही कहते हैं, जिन नामों से हम लोग प्रसिद्ध हैं, वे नाम दूसरे नहीं रख सकते। अतिष्ठदेकोन शतक्रतुत्वे शक्राभ्य सूया विनिवृत्तये यः। 6/74 जो केवल निन्यानवे यज्ञ करके ही इसलिए चुप हो गए, कि कहीं सौ यज्ञ पूरे करने से इन्द्र को कष्ट न हो।
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