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कालिदास पर्याय कोश
इन्दुमती ने जब उस सर्वांग सुन्दर राजा अज को देखा, तब वह वहीं रूक गई और फिर किसी राजा के आगे नहीं जा सकीं।
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प्रभानुलिप्त श्रीवत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम् । 10/10
जिसमें लक्ष्मीजी शृंगार के समय अपना मुँह देखा करती हैं और जिसकी चमक मृगु के चरण के प्रहार से बना हुआ श्रीवत्स चिह्न चमक उठता था ।
हेमपक्ष प्रभाजालं गगने च वितन्वता । 10 / 61
अपने सोने के पंखों से प्रकाश फैलाता हुआ, अपने वेग के कारण हमें आकाश में उड़कर ले जा रहा है।
स नादं मेघनादस्य धनुश्चेन्द्रायुधप्रभम्। 12/79
वैसे ही लक्ष्मण भी मेघनाद के गर्जन को और इन्द्रधनुष के समान धनुष को क्षण भर में ले बीते ।
क्वचित्प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छाया विलीनैः शबलीकृतेव । 13 /56 कहीं-कहीं ये वृक्ष के नीचे की उस चाँदनी के समान लगती हैं, जिसके बीच-बीच में पत्तों की छाया पड़ी हो।
शतह्रदमिव ज्योति: प्रभामण्डलमुद्ययौ । 15 / 82
उसमें से बिजली के समान चमकीला एक तेजोमंडल निकला।
प्रत्यूपुः पद्मरागेण प्रभामंडल शोभिना । 17/23
उन्होंने वह पद्मरागमणि बाँधी, जिसकी सुंदर चमक चारों ओर फैल गई। तस्य प्रभानिर्जितपुष्परागं पौष्पां तिथौ पुष्यमसूत पत्नी । 18/32
राजा पुत्र की पत्नी से पूस की पूर्णिमा के दिन पद्मरागमणि से भी अधिक कांतिमान नामक पुत्र हुआ ।
7. शोभा : - [ शुभ्+अ+टाप्] प्रकाश, कान्ति, दीप्ति, चमक ।
नाम्भसां कमलशोभिनां तथा शाखिनां च न प्रपरिश्रमच्छिदाम् । 11/12 कमलों से भरे हुए सरोवरों तथा थकावट हरने वाले वृक्षों की छाया को देखकर भी ।
राजेन्द्र नेपथ्य विधान शोभा तस्योदिताऽऽसीत्पुनरुक्तदोषा । 14 / 9 वे इस समय राजसी वस्त्र पहनकर और भी सुंदर लगने लगे। 8. श्री : - [ श्रि + क्विप्, नि०] सौन्दर्य, चारूता, लालित्य, कान्ति । पुरंदर श्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरेरभिनन्द्यमानः । 2/74
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