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कालिदास पर्याय कोश
जब क्षात्र तेज के साथ ब्रह्मतेज मिल जाता है, तब वह वैसा ही बलशाली हो जाता है, जैसे वायु का सहारा पाकर अग्नि ।
उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः । 10 / 30
जैसे समुद्र के रत्न और सूर्य की किरणें गिनी नहीं जा सकती।
ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च । 10/83
उन प्रजा के स्वामी राजकुमारों ने अपने तेज और नम्र व्यवहार से अपनी प्रजा
का ।
तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनी मुखे । 11 /63
इसी बीच अचानक एक ऐसा प्रकाश का पुंज सेना के आगे उठता दिखाई दिया, जिसे देखकर सब सैनिकों की आँखें चुंधिया गईं ।
तावुभावपि परस्परस्थितौ वर्धमान परिहीन तेजसा । 11/82
आमने सामने खड़े हुए राम और परशुराम में से एक का तेज बढ़ गया और दूसरे
का घट गया ।
अवेक्ष्य रामं ते तस्मिन्न प्रजहुः स्वतेजसा । 15/3
वे तपस्वी यदि चाहते, तो अपने तेज से लवणासुर को भस्म कर डालते । तेजोमहिम्ना पुनरावृतात्मा तद्वयाप चामीकर पिञ्जरेण । 18/40
पर उनके शरीर से जो स्वर्ण के समान तेज निकलता था, उससे वह सिंहासन भरा सा ही जान पड़ता था ।
4. दीप्ति (स्त्री० ) [ दीप् + क्तिन्] उजाला, चमक, प्रभा, आभा ।
हुतहुताशन दीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्ययत्। 9/40 हवन की अग्नि के समान चमकते हुए कनैर के फूल, वनलक्ष्मी के कर्णफूल जैसे जान पड़ते थे।
5. द्युति :- ( स्त्री० ) [द्युत + इनि] दीप्ति, उजाला, कान्ति, सौन्दर्य | ततो निषंगाद समग्र मुद्धृतं सुवर्ण पंखद्युति रंजितांगुलिम् । 3/64 रघु ने तूणीर से आधे निकाले हुए उस बाण को फिर से उसमें डाल दिया, जिसके सुनहरे पंख की चमक से उनकी उँगलियों के नख भी चमक उठे । दशरश्मिशतोपमद्युतिं यशसा दिक्षु दशस्वपि श्रुतम् । 8/29 जो दस सौ किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी थे, जिनका यश दसों दिशाओं में फैला था ।
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