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रघुवंश
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प्रभा 1. कांति :- (स्त्री०)[कम्+क्तिन्] सौन्दर्य, चमक, प्रभा, दीप्ति।
सदृशकान्तिरलक्ष्यत मंजरी तिलकजालक जालक मौक्तिकैः। 9/44 तिलक के फूलों के गुच्छे ऐसे लगने लगे, जैसे किसी स्त्री ने अपने सिर पर मोतियों की माला पहन ली हो। छवि :- (स्त्री०)[छयति असारं छिंतत्ति तमो वा-छो+वि किच्च वा ङीप्] आभा, सौन्दर्य, कान्ति। उपययौ तनुतां मधुखंडिता हिमकरोदयपांडु मुखच्छविः। 9/38 रात्रि रूपी नायिका,खंडिता नायिका के सामन छोटी होती चली गई और उसका चन्द्रमा वाला मुख भी फीका पड़ता गया। ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भूतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः। 9/45 मानो धनुषधारी कामदेव का झंडा हो या वसंत श्री के मुख पर लगाने का शृंगार
चूर्ण हो। 3. तेज :- (नपु०) [तिज्+असुन्] चमक, दीप्ति, गर्मी, प्रभा, प्रकाश, ज्योति।
सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना। 1/14 अपनी दृढ़ता से संसार के सब दृढ़ पदार्थों को दबा दिया है, अपनी चमक से सब चमकीली वस्तुओं की चमक घटा दी है। सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठ्य तमैशाम्। 2/75 जैसे स्कन्द को उत्पन्न करने वाले शंकरजी के उस तेज को गंगा जी ने धारण किया, जिसे अग्नि भी नहीं संभाल सका था। अरिष्टशय्यां परितो विसारिणा सुजन्मनस्तस्य निजेन तेजसा। 3/15 उस भाग्यवान बालक का तेज, सौरी घर में चारों ओर इतना छाया हुआ था। अतिप्रबन्ध प्रहितास्त्रवृष्टिभिस्तमाश्रयं दुष्प्रसहस्य तेजसः। 3/58 वैसे ही इन्द्र भी अपने अंश (तेज) से पैदा हुए रघु को बाणों की वर्षा से हरा न
सके।
दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः। 4/1 जैसे साँझ के सूर्य से तेज लेकर आग चमक उठती है। पवनाग्निसमागमो हययं सहितं ब्रह्म यदस्त्रतेजसा। 8/4
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