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रघुवंश
दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखा:प्रदक्षिणार्चिहविरग्निरादरे। 3/14 आकाश खुल गया था, शीतल मंद-सुगंध वायु चल रहा था और हवन की अग्नि की लपटें दक्षिण की ओर घूमकर हवन की सामग्रियाँ ले रही थीं। प्रतापस्तस्य भानोश्च युपगद्व्यानशे दिशः। 4/15 खुले आकश में चमकते हुए प्रचंड सूर्य के प्रकाश के समान ही शत्रुओं के नष्ट हो जाने पर, रघु का प्रचंड प्रताप भी चारों ओर फैल गया। इति जित्वा दिशो जिष्णुर्यवर्तत रथोद्धतम्। 4/85 इस प्रकार विजयी रघु सारी पृथ्वी को जीतकर लौटे, तो उनके रथ के पहियों से उठी हुई।
दिन
1. अहन् :-[न जहाति त्यजति सर्वथा परिवर्तनं, न+हा+कनिन् न० त०] दिन।
द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम्। 5/25 दो चार दिन ठहरिये, तब तक मैं आपकी गुरुदक्षिणा के लिए कुछ न कुछ जतन करता हूँ। मेरोरूपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्य संसक्तमहस्त्रियामम्।7/24
मानो दिन और रात का जोड़ा मिलकर सुमेरु पर्वत की फेरी दे रहा हो। 2. दिन :-[द्युतितमः, दो (दी) +नक्, ह्रस्वः] दिन।
तदन्तरे सा विरराज धेनुर्दिनक्ष पापमध्य गतेव संध्या। 2/20 इन दोनों के बीच में वह लाल रंग की नंदिनी ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे दिन और रात के बीच में साँझ की ललाई। सप्त व्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य। 2/25 इस प्रकार दीनों के रक्षक राजा दिलीप के इक्कीस दिन बीत गए। दिनेषु गच्छत्सु नितान्तपीवरं तदीयमानीलमुखं स्तनद्वयम्। 13/8 थोड़े ही दिनों में उसके बड़े-बड़े स्तनों की छुडियाँ काली पड़ गईं। पितुः प्रयत्नात्स समग्रसंपदः शुभैः शरीरावयवैर्दिने दिने। 3/22 वैसे ही बालक रघु के अंग भी संपत्तिशाली पिता की देखरेख में दिन-दिन बढ़ने लगे। जीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव। 7/60
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