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रघुवंश
105 तमिस्रपक्षेऽपि सहप्रियाभिर्योत्स्नावतो निर्विशति प्रदोषान्। 6/34 इसलिए अंधेरे पक्ष में भी शिवजी के सिर पर बने चंद्रमा की चाँदनी से ये अपनी स्त्रियों के साथ सदा उजले पक्ष का आनंद लेते हैं।
तरंग
1. उर्मि :- तरंग, लहर।
कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मि संसक्त जलेव भाति। 6/48 उस समय मथुरा में भी यमुनाजी का रंग ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहीं पर
उनका गंगाजी की लहरों से संगम हो गया हो। 2. तरंग :-[तृ+अङ्गच्] लहर।
प्रत्यग्रहीत्पार्थिव वाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरंगः। 7/36 स्वयं उस सेना को रोककर उसी प्रकार खड़े हो गए जैसे बाढ़ के दिनों में ऊँची तरंगों वाला शोणनद गंगाजी के धारा को रोक लेता है। मुखार्पणेषु प्रकृतिप्रगल्भाः स्वयं तरंगाधरदानदक्षः। 13/9 जब नदियाँ ठीक होकर चुम्बन के लिए अपना मुख इनके सामने बढ़ाती हैं, तब यह बड़ी चतुराई से अपना तरंग रूपी अधर उन्हें पिलाता है। दूरे वसन्तं शिशिरानिलैमी तरंग हस्तैरूप गहतीव। 13/63 यह सरयू अपने ठंडे वायु वाले तरंग रूपी हाथ उठा रही है, मानो इतने ऊँचे पर
से ही मुझे गले लगाना चाहती हो। 3. वीचि :-[वेईचि, डिच्च] लहर।
प्रासादवातायनदृश्यवीचिः प्रबोधयत्यर्णवः एव सुप्तम्। 6/56 समुद्र की लहरें राजभवन के झरोखों से स्पष्ट दिखाई देती हैं, जब ये अपने राजभवन में साते हैं, तब वह समुद्र ही नगाड़े की ध्वनि से भी गंभीर अपने गर्जन से इन्हें प्रातः जगा देता है।
तरस
1. ओज :-[उब्+असुन् बलोपः, गुणश्च] बल, शक्ति, वीर्य।
विद्धि चात्तबलमोजसा हरेरैश्वरं धनुरभाजि यत्त्वया। 11/76 तुम्हें यह समझ रखना चाहिए कि शिवजी के जिस धनुष को तोड़कर तुम ऐंठ रहे हो, उसकी कठोरता तो विष्णुजी ने पहले ही हर ली थी।
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