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शिक्षा और परीक्षा
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जाते हैं, जो भारत की दरिद्रता, अज्ञानता और खराबियां मिटाने में काम आते हों । व्यर्थ ही उन पुस्तकों के पीछे छात्रों को सैकड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जो पुस्तकें आयन्दे किसी काम में नहीं आती हैं । पाठयक्रम बार-बार बदला जाता है । मेरा तो अनुभव है कि, कोर्स में जितने विषय और ग्रन्थ कम होते हैं, उतना ही ज्ञान अच्छा
और ठोस होता है । एक विषय में अच्छी योग्यता प्राप्त करने वाले को दूसरे विषय सुलभ हो जाते हैं। कहावत भी है कि, “एक ही साधे सब सधे सब साधे सब जाय ।"
मेरे सारे लेख का तात्पर्य यह है कि, हमारी वार्तमानिक शिक्षा और परीक्षा की पद्धति बहुत सुधार चाहती है । शिक्षा और परीक्षा का उद्देश्य और स्वरूप निश्चित करना चाहिये । मेरा यह कहने का मतलब नहीं है कि, "पुरानी पद्धति सब अच्छी ही थी और वर्तमान पद्धति सब दूषित ही है।" इन दोनों पद्धतियों में जो बाते आदरणीय हों, उन्हें स्वीकार करना हमारा कर्तव्य है । हम बीसवीं सदी में हैं। इसलिए वर्तमान समय के अनुकूल प्राची या प्रतीची पद्धतिकी उपेक्षा नहीं कर सकते । जीवन और पवित्रता आनी चाहिये, यही मेरा कहना है ।
अन्तमें मैं चाहता हूं कि, शिक्षा जैसे परम आवश्यकीय और महत्त्व के विषय पर प्रत्येक प्रान्त, जाति और धर्म के लोग यथार्थ परामर्श कर अपने अपने क्षेत्रमें आदर्श पद्धति को प्रवर्तित करें ।
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