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महाकवि वागभट के जैन ग्रन्थ की व्याख्या में गडबड १६९
रेखांकित (-) वाक्यों से स्पष्ट मालूम होता है कि पण्डित जी किसी भी तरह से इस जैन ग्रन्थ को वैदिक ग्रन्थ बनाना चाहते हैं, नहीं तो 'जिन' ( तीर्थकर ) के साथ विष्णुः रु.६मी, ब्रह्मा और व्यासावतारस्य आदि पदों की संगति कैसे हो सकती है ? वैदिक विद्वानों में पूछने पर पता चला है कि वैदिक लोग बुद्धदेवको विष्णु का अवतार मानते हैं, जैन तीर्थंकरों को नहीं मानते, इससे 'जिनस्य विण्वावतारता प्रदर्शिता' लिखना भी भूल है. इसके अलावा व्याख्याकार का यह भी विचार है कि यह ग्रन्थ बौद्धों का हो जाय तो भी अच्छा है, इसी इरादे से अथवा समझ फेर से जहां २ मूल श्लोकों में जिन, जिनेन्द्र'
और अर्हन् शब्द आये हैं वहां २ ( लेखकने ) उसका अर्थ बुद्ध अथवा बुद्धदेव किया है और जहाँ २ जैनों के २२ [बाईसवें] तथा २४ [चोबीसवें] तीर्थकरों के नाम नेमि [ नेमिनाथ ] और वीर [ महावीरस्वामी] आये हैं, वहाँ २ भी उन्होंने स्पष्टता नहीं की है । देखिये कुछ नमूना बताता
विनयात् त्वं (त्वां) स्तुवां (स्तुवे) वीरविनत त्रिदशेश्वरः ॥ वा० पृष्ट १३
टीका-हे वीर! विनयात् (यहां वीर से २४ वे तोर्यकर महावीर स्वामी से कविका मतलब है। स्वामी
१ जिनेन्द्र, अर्हन, वीतराग और तीर्थकृत् शब्द, प्रायः करके जैन तीर्थंकरों के लिए ही प्रयुक्त होते हैं ।
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