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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाताधर्मकथाजस्त्रे द्रौपद्या देव्या मार्गणगवेषणं ‘करित्तए' कर्तुम् इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः कुन्तीं ' पिउच्छि' पितृष्वसारमेवमवादीत्-यत् नवरं हे पितृष्वसः । यदि द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि श्रुतिं वा क्षुति वा प्रवृत्तिं वा यावत् लभे, ' तो णं' तर्हि खलु, अहं पातालाद् भवनाद् वा अर्धभरताद् वा-खण्डत्रयमध्यात् समन्तात् सर्वतः स्थानाद् , द्रौपदी देवीं 'साहत्थि' स्वहस्तेन ' उवणेमि' उपनयामि, इति कृला==इत्युक्त्वा कुन्तीं 'पिउत्थि' पितृष्वसारं सत्कायति समानयति, सत्कार्य .............इस लिये हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदी की मार्गणा एवं गवेषणा होनी चाहिये । (तएणं से कण्हे वासुदेवे कोती पिउच्छि एवं वयासीजणवरं पिउच्छी दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाव लभामि तोणं अहं पायालाओ वा भवणाओ अद्धभरहाओ वा, समंतओ दोवई साहत्थि उवणेमि त्ति कटूटु कोती पिउच्छि सक्कारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जियो, समा. णी जामेव दिसि पाउ० तामेवदिसिं पडिगया) तब कृष्ण वासुदेव ने अपनी भुआ कुंती देवी से इस प्रकार कहा-हे भुआ ! मैं और अधिक तो क्या कहूँ-द्रौपदी देवी की यदि मैं कहीं पर भी श्रुतिक्षुति, और प्रवृत्ति पा लेता हूँ तो मैं चाहे वह पाताल में हो, या किसीके भवन में हो, या अर्ध भरत क्षेत्र में से कहीं पर भी क्यों न हो-उस द्रौपदी देवी को सब जगह से अपने हाथों से ला कर दूँगा। इस प्रकार कहकर उन कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृष्वसा कुंती देवी का सत्कार किया, (तएणं से कण्हे वासुदेवे कोत पिउच्छिं एवं वयासी जं णवर पिउण्छा दोवइए देवीए कत्थई सुई वा जाव लभामि तो णं अह पायालाओ वा भवणाओ अद्ध भरहाओ वा, समंतओ दोवई साहस्थि उवणेमित्ति कटु को ती पिउच्छि सकारेइ सम्माणेइ, जाव पडिविसज्जेइ, तएणं सा कोती देवो कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविमज्जिया समाणी जामेव दिनि पाउ० तामेव दिसि पडिगया ) ત્યારે કૃષ્ણ વાસુદેવે પિતાના ફેઈ કુંતી દેવીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે કઈ! હું વધારે શું કહું, દ્રૌપદી દેવીની જે હું કઈ પણ સ્થાને તિ, ક્ષતિ અને પ્રવૃત્તિ મેળવી લઈશ તે ભલે તે પાતાળમાં હોય, કેઈના ભવનમાં હોય કે અધ ભરત ક્ષેત્રમાં ગમે ત્યાં કેમ ન હોય તે દ્રૌપદી દેવીને ગમે ત્યાંથી હું લાવી આપને આપીશ તેમ છું. આ પ્રમાણે કહીને તે કૃષ્ણ વાસુદેવે પોતાના ફેઈ પિતશ્વસા-કુતીદેવીને સત્કાર કર્યો અને સન્માન કર્યું. સત્કાર તેમજ સન્માન For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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