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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org — बनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० १६ द्रौपदीच रितनिरूपणम् वीराः पुरुषास्त्रैलोक्ये बलवन्तः नेमिनाथापेक्षया तेषाम्, 'आमंतेऊण तं भगवई ' आमन्त्र्य = प्रयुज्यतां भगवतीं विद्यां कीदृशीं विद्यामित्याह - ' पक्कमणि ' प्रक्रमण= प्रकृष्टगमनशक्ति शालिनीं 'गगणगमणदच्छं' गगनगमनदक्षाम् = आकाशे गमने समर्थाम् ' उप्पइओ' उत्पतितः, गगनमभिलङ्घयन् उड्डीय गमनेनाकाशतलमुल्लङ्घयन् 'गामा गर नगर निगमखेड कब्बड मडंवदोण मुहपट्टणासमसंवाह सहस्समंडियं' ग्रामाकरनगरनिगम खेटकर्ब टमंड द्रोण मुखपत्तनाश्रमसंवाह सहस्रमण्डितं, तत्र अष्टादशकरग्राह्यो ग्रामः, आकरः=स्वर्णाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगरं, निगमं=वणिग्ग्रामं खेटं= धूलीमकारं, कर्बटं = कुत्सितनगरं यत्र योजनान्तराले ग्रामादिनास्ति तन्मडम्बं यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां, भाण्डान्यागच्छंति तत् द्रोणमुखं, पत्तनं द्वेधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहंति स संवाह एतैः सहसैर्मण्डितं, स्तिमितमेदिनीतलं, 'सु' वसुधां भूमि ' ओलोईतो ' अवलोकयन् = पश्यन् रम्यं हस्तिनापुरं नगरमुपागतः पाण्डुराजभवनेऽतिवेगेन समुपेतः = गगनादवतीर्ण इत्यर्थः ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ततः खलु स पाण्डूराजा कच्छुल्लनारयं ' कच्छुल्लनारदम् आगच्छन्तं पश्यति दृष्ट्वा पञ्चभिः पाण्डवैः कुन्त्या च देव्यासार्धमासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय दशाह थे उनके ये सदा चित्त के विक्षेप कारक बने रहते थे। गमन में विशिष्ट शक्ति प्रदान करने वाली एवं आकाश में उठाकर ले चलने वाली उस भगवती प्रक्रमणी विद्या को प्रयुक्त करके से आकाश में उड़ा करते थे। ये नारद, गमन से आकशतल को उल्लंघन करते हुए ग्राम, आकर, नगर निगम खेट, कर्बट, महंब, द्रोणमुख, पत्सन, संवाह इनके सहस्रों से मंडित हुई ऐसी स्तिमितमेदनीतलवाली वसुधा-भूमि को देखते हुए रम्य हस्तिनापुर नगर में आये और वहां से गगनमार्ग से होकर फिर ये पांडुराज के भवन में पहुँचे। ऐसा संबंध यहां लगाना (तपूर्ण से पंडूराया कच्छुल्लनार एज्जमार्ण पासइ) इम के योद पांडुराजा ने कच्छुल्ल इन नारद को आते हुए जब देखा (पासित्ता) तो ગમનમાં વિશિષ્ટ શક્તિ આપનારી અને આકાશમાં ઉડાડીને લઈ જનાર તે પગવતી પ્રક્રમણી વિદ્યાના ખળથી તેએ આકાશમાં ઉડતા રહેતા હતા. આ રીતે આ નારદ ગમનથી આકાશને ઓળંગીને સહસ્રો ગ્રામ, આકર. નગર, निगम जेट उट, भडंग, द्रोण, पत्तन, संमाडोथी, मंडित याने स्तिमित પૃથ્વીને જોતા રમણીય હસ્તિનાપુર નગરમાં આવ્યા અને ત્યાંથી આકાશ भार्गभां थाने पांडुरान्ना लवनभां यहांच्या (तएण से पांडुराया कच्छुलनार एज्जमानं पासइ) त्यारमा पांडुरालये इच्छुना रहने न्यारे भावता या (पाक्षिक) त्याने (पहिं वेदि तीप देवीप सद्धि भासणाओ For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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