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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १२ खातोदकविषये सुबुद्धिदृष्टान्तः Go अमन आमतरकमेवास्ति । ततः खलु स जितशत्रुः सुबुद्धिममात्यमेवमवादीत् - अहो ! खलु हे सुबुद्धे ! इदं परिखोदकममनोज्ञं वर्णेन ४, कीदृशम् ? इत्याह-' से जहा नामए ' तद् यथा नामकं=यथादृष्टान्तं निरूप्यते-अहिमृतकमिति वा यावद् एतस्मादपि=अहिमृतकादिभ्योऽपि अनिष्टतरम् अमनोज्ञतरम् अमन आमतरमेव वर्त्तते । ततः खलु सुबुद्धिरमात्यो यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स जितशत्रू राजा सुबुद्धिरमात्यं द्वितीयमपि तृतीयमपि वारमेवमवादीत् - अहो ! खलु 'तं चेत्र ' तदेव पूर्ववदेव राजा वदति । ततः तदनन्तरं खलु स सुबुद्धिरमात्यो जितशत्रुणा नोज्ञ है | जैसे मरे हुए सर्पादिक के सड़े आदि अवस्थापन कलेवर से दुर्गंध आती है उसी तरह की इस से भी अधिक अनिष्टतर असह्य दुगंध इस से आ रही है ! इस प्रकार अपनी बात का समर्थन प्राप्तकर जितशत्रु रोजा ने अपने सुबुद्धि अमात्य प्रधान से कहा- हे सुबुद्धे ! यह परिखोदक वर्ण, रस, गंध, और स्पर्श से बिलकुल अमनोज्ञ बन रहा है । जिस प्रकार मरे हुए सर्प आदि के मडे गले आदि अवस्था पन्न कलेवर से अधिक अनिष्ट तर दुर्गंध निकलती है उससे भी अधिक अनिष्टतर दुर्गंध इससे निकल रही है। इस प्रकार अपने राजाकी बात सुनकर सुबुद्धि अमात्य ने उसका आदर नहीं किया उसे स्वीकार नहीं किया केवल चुपचाप ही रहा । (तएण से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमचं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी अहोणं तंचेव, तएण से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तू रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवंबुत्ते समाणे एवं वयासी नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ विम्हए, एवं અનિષ્ટતર, અસહ્ય દુર્ગંધ આવે છે તેના કરતાં પશુ વધારે ખરાબ આ દુર્ગંધ છે. આ રીતે પેતાની વાતનું સમર્થન પ્રાપ્ત કરીને જીતશત્રુ રાજાએ પેાતાના સુબુદ્ધિ અમાત્ય પ્રધાનને કહ્યું કે હે સુષુદ્રે ! આ પરિખાઇક-ખાઈवर्षा, रस, गंध अने स्पर्शमां म्हम अमनोज्ञ-राम-थई गई छे, भरीने સડી ગયેલા સાપ વગેરેના અવસ્થાપન્ન કલેવા-શરીર-થી જેવી અનિષ્ટતર દુગંધ આવે છે તેના કરતાં પણ વધુ અનિષ્ટતર-ખરાખ–દુધ આ ભાઇમાંથી આવી રહી છે. આ રીતે રાજાની વાત સાંભળીને સુબુદ્ધિ અમાત્યે તેના આદર કર્યાં નહિ, તેના સ્વીકાર કર્યાં નહિ પણ ચૂપચાપ થઇને જ ચાલતા રહ્યો. (तरण से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चंपि तच्चपि एवं क्यासी अहोणं तं चेत्र तरणं से सुबुद्धी अमचे जियसत्तूणा रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे एवं क्यासी नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदगंसि केइ बिम्दए, For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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