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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शांताधर्मकथा दीत-भो देवानुपियाः 'खिप्पामेव ' हिममे शीघ्रमेव सुधर्मायां सभायांगत्वा 'मेघोघरसियं' मेघौघरसिता मेघौघानां मेघसमूहाना रसितमिव रसितं ध्वनिरिव ध्वनिर्यस्यारतां गम्भीरां सान्द्रां 'महुरसई ' मधुरशब्दां 'कोमुइयं ' कौमुदिको उत्सवसूचनासमये वादनीया कौमुदिका नाग्नी श्रीकृष्णवासुदेवस्य मेरी तां, मेरि दुन्दुभि 'तालेह' ताडयत वादयत । ततः तदनन्तरं खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः कृष्णेन वासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो हृष्टाः यावत् हर्षवंशविसर्पद् हृदया मरतकेडञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन् तथेति ' यावत् 'हे स्वामिन् एवमेव तथाऽस्तु' इत्युक्त्या प्रतिश्प्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति। प्रतिश्रुत्य आज्ञां स्वीकृत्य कृष्णस्य वासुदेवरयान्तिकात् समीपात् 'पडिनिखमंति' प्रतिनिष्क्रामन्ति=निःसरन्ति । पतिपुरुषोंको बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा( खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया सभाए सुहम्माए ) भो देवानुप्रियो । तुम लोग शीध्र ही सुधर्मा नाम की सभा मे जाकर (मेघोघरंसियं गंभीरमहुरसई कोमुदीयं भेरि तालेह) मेघोके समूह जैसी सान्द्र मधुर शब्दवाली कौमुदिक नामकी भेरी को कि जो उत्सव की सूचना के समय बजाई जाती है बजाओ। (तएणं ते कौटुंबियपुरिसा कण्हेणं वासु. देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कड्ड एवं सामी ! तहत्ति जाव पडिस्सुणेति) कृष्णवासुदेव की इस प्रकार आज्ञा सुनकर वे कौटुम्बिक पुरूष अधिक हर्षित एवं संतुष्ट हुए और मस्तक पर अंजलि रखकर हे स्वभिन् ! जैसी आपकी आज्ञा है हम वैसा ही करेंगे ऐसा कहकर उन्होंने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली (पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति ) आज्ञा स्वीकार कर समजान (कौडुबियपुरिसे सहावेइ) डोमि पुरुषाने माराव्या. (सहावित्ता एवं वयासी) मालावीर तमो यु-(खिप्पमिव भो देवाणुप्पिया ! सभाए महम्माए ) वानुप्रियो ! सत्वरे तमे सुघर्भा नामनी सलाम ने ( मेघोष रंसिंय गंभीरमहुरसह कोमुदीय भेरि तालेह ) भेसभडना व સાન્દ્ર મધુર શબ્દવાળી તેમજ ઉત્સવના વખતે વગાડવામાં આવતી કૌમુહિક नामन मेशने ॥31 ( तएणं वे कौंडुबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवे णं एवं वुत्तासमाणा हट्ठ जाव मत्थए अंजलि कहूँ एवं सामी ! तहत्ति जोव पडिसणेति) કૃષ્ણ વાસુદેવની આવી આજ્ઞા સાંભળીને કૌટુંબિક પુરુષ ખૂબજ હર્ષિત અને સંતુષ્ટ થયા, તથા મસ્તકે અંજલિ રાખીને કહેવા લાગ્યા,–“હે સ્વામિન ! આપની જેવી આજ્ઞા છે, તે પ્રમાણે જ અમે કરીશું આમ કહીને તેઓએ તેમની भाना स्वीसीधी. “पडिसुणिचा कण्हस्स वासुदेवस्म अंतयाओ पडिनिक्ख For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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