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ममगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ समवसरणे कृष्णगमनादिनिरूपणम् १७ __मूलम्-तएणं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धडे समाणे कोडंबियपुरिसे सद्दावेद, सहावित्ता एवं वयासोखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरमहुरसहं कोमुदीयं भेरि तालेह, तएणं ते कोडुंबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कटु-एवं सामी ! तहत्ति जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरं महरसई कोमुदियं भेरिं तालेति । तओ णिद्धमहुरगंभीरपडिसुएणं पिव सारएइणं बलाहएणं पिव अणुरसियं भेरीए ॥सू०८॥
टीका--'तएणं' इत्यादि । ततः तदनन्तरं, खलु स कृष्णो वासुदेवोऽनया भगवानरिष्टनेमिः समागत इत्येवं रूपया कथया = वनपालकथितया कथया 'ठे' लब्धार्थः लब्धः प्राप्तः, भगवदागमनरूपोऽर्थों येन स तथा, सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति आयति, शब्दयित्वा, एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण अवा. भगवान को वंदना कर वे सब धर्म सुनने की अभिलाषा से भगवान के सामने बैठ गये । प्रभुने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। "सूत्र"७"
तएणं से कण्हे वासुदेवे इत्यादि ॥ टीकार्थ-(तएणं) इसके बाद (से कण्हे वासुदेवे) उन कृष्ण वासुदेव ने (इमीसे कहाए लट्टे समाणे) वनपाल के मुख से अरिष्ट नेमि प्रभुका आगमन रूप अर्थ विदित कर (कौडुषियपुरिसे सहावेइ) कौटुम्बिक સાંભળવાની ઈચ્છાથી તેમની સામે બેસી ગયા. પ્રભુએ પણ તેમને ઉપદેશ पायी. ॥ सूत्र "७" ॥ .. तएण से कण्हे वासुदेवे त्याहि ॥
ANथ-(तएण) त्या२ माह ( से कण्हे वासुदेवे ) Yug वासुहेवे (इमीसे कहाए लद्धट्रे समाणे) नाना भांथी भरिटनम प्रभुनी पराभानी पात
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