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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०११ जीवानामाराधकविराधकत्वनिरूपाम् ६७१ वस्मिन् समये राजगृहे नगरे गौतम एवमवादी-एवमपृच्छत्-कथं खलु भदन्त । हे भगवान् ! जीवा आराधकाः ज्ञानादि रत्नत्रयरूपमोक्षमार्गसाधकाः, विराधका: तद्विपरीता भवन्ति ? । एतमर्थ भगवान् दृष्टान्तेन वर्णयति-हे गौतम ! तद्यथा नामकं-यथा दृष्टान्तम्-एकस्मिन् समुद्रकूले सागरतटे ' दावद्दवा ' दावद्रवाः, नाम-एतानामधेया वृक्षाः प्रज्ञप्ताः । कीदृशाः ? इत्याह-' किण्हा' कृष्णा कृष्ण वर्णा यावत् महामेघनिकुरम्बभूताः जलसम्भृतमेघान्दमदृशा 'पत्तिया' ज्ञाताध्ययन का अर्थ निरूपित किया है वह इस प्रकार है-(तेणं कालेणं तेण समएण रायगिहे गोयमे एवं वयासी ) उस काल और उस समय में राजगृहनगर में श्रमण भगवान महावीर प्रभु पधारे-उनसे गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा- (कहण्णं भंते ! जीवा आराहगा वा विराह गा वा भवंति ? ) हे भदंत ! जीव ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग के आराधक साधक-और विराधक कैसे-किस कारण से-होते है ? ( गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावदवा नोमं रुक्खा पण्णत्ता) प्रभु ने उनकी इस बात का उत्तर इस तरह के दृष्टान्त से दिया-हे गौतम ! समुद्र के तटपर “दाबद्रव" इस नामके बहुत से वृक्ष खड़े हुए थे (किण्हा जाव निरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा, सिरीए अतीव २ उवसोभेमीणा निद्वंति ) ये सब जल से भरे हुए मेघों के समूह जैसे कृष्ण वर्ण के थे स्वामी तन ४ छ । ( एवं खलु जंबू ! ) ! सामना, प्रभु मशिયારમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ આ પ્રમાણે નિરૂપિત કર્યો છે. ( तेणं कालेणं तेणं समएण रायगिहे. गोयमे एवं वयासी) - તે કાળે અને તે સમયે રાજગૃહ નગરમાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર ५धार्या. गौतम स्वामी तेमने या प्रमाणे प्रश्न -(कहण्णं भंते ! जीवा भाराहगावा विराहगावा भवंति ? 3 महत ! ७१ ज्ञान पगेरे रत्नत्रय ३५ મોક્ષ માર્ગના આરાધક-સાધક અને વિરાધક કેવી રીતે-શા કારણથી થાય છે? (गो० ! से जहानामए एगसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नाम रुक्खा पण्णत्ता) પ્રભુએ તેમના તે પ્રશ્નને જવાબ દૃષ્ટાન્તના આધારે આપતાં કહ્યું–હે ગૌતમ ! સમુદ્રને દાવદ્રવ જાતિનાં ઘણાં વૃક્ષે હતાં. (किण्हा जाव निऊरंव भूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरे रिज्नमाणा, सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा चिट्ठति ) એ બધાં વૃક્ષે જળપૂર્ણ મેઘ સમૂહોની જેમ કાળા રંગનાં હતાં. બધાં વૃક્ષ, પ, પુષ્પો અને ફળથી સમૃદ્ધ હતાં. લીલા રંગથી એ વૃક્ષ શેતાં For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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