SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 629
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् .५७३ गनणकम्मगारविलविआ ' हाहाकृतकर्णधारनाविकवाणिजकजनकर्मकरविलपिता हाहाकृतैः हाहाकारयुक्तैः कर्णधारः निर्यामकैः, नाविकैः पोतवाहकैः, वाणिजकजनै व्यापारिजनैः, कर्मकरैः भृत्यैः विलपिता-विलापयुक्ता-कर्णधारादीनां हाहा कारेण विलापं कुर्वतीवेत्यर्थः ‘णाणाविहरयणपणियसंपुण्णा' नानाविधैः रत्नैःपण्यैश्वविक्रप्यवस्तुजातैः सम्पूणा सम्भृता, बहुभिः पुरुषशतैः रुदभि कन्दद्भिः शोचद्भिः, 'तिप्पमाणेहि तेपमानैः अश्रुणि मुञ्चद्भिः विलपद्भिः, विलापं कुर्वद्भिः, एकं महत 'अंतोजलगयं ' अन्तर्जलगत जलमध्यस्थितं गिरिशिखरमासाद्य-संघट्य 'संभग्गः कवतोरणा' संभग्नकूपतोरणा-संभग्नः त्रुटितः कूपः कूपस्तम्भः-यत्र सितपटो बन गई थी (हा हा कयकण्णधारणा विव वाणियगजणकम्मगार विलविया) इस में जो कर्ण धार, नाविक, व्यापारिजन एवं नौकरचाकर बैठे हुए थे वे सब के सब हाहाकार करते हुए विलाप कर रहे थे- अतः ऐसा मालूम होता था कि उनके हाहाकार विलापों से यह नौको स्वयं विलाप कर रही है । (णाणा विहरयणपणिय संपुण्णा) अ. नेक प्रकार के रत्नों से एवं पण्य द्रव्यों से-विक्रेय्यवस्तुओं से-यह नौका भरी हुई थी। (रोयमाणेहिं कंद सोय तिप्प० विलवमाणेहिं पहहिं पुरिसरहिं एगं महं अंतोजलगयं गिरिसिहरमासायइत्ता ) रुदन करनेवाले, आक्रन्दन करनेवाले, शोक करनेवाले, आंसुओं को वहानेवाले ऐसे सैंकड़ों पुरुषों से भरी हुई यह नौका एक बड़े भारी जलके भीतर रहे हुए गिरिके शिखर से टकरा गई-टकराते ही (संभग्गकूवजतनी तिथी ते. नाप मारे पहा२ २४ ५डी उती. ( हा हा कय कण्णधारण विव वाणियगजणकम्मगारविलविया ) તેમાં બેઠેલા કર્ણધાર, નાવિક, વેપારીઓ અને બીજા નોકર ચાકરે હાય, હાય, કરીને વિલાપ કરી રહ્યા હતા એથી એમ લાગતું હતું કે જાણે તેઓના वाथी १ मा नाप पाते विसा५ ४२ती नाय ! (णाणाविहरयण पणिय संपुण्णा ) तनi २त्ने। मन वेयाशुनी पस्तुमाथी मा ना१ पूरेपूरी नरी उती. (गेयमाणेहि कद० सोय. तिप्प० विलवमाणेहि बहूहि पुरिसएहिं एगं महं अंतोजलगय गिरिसिहरमासायइत्ता ) રડનારા, કરુણ આક્રંદ કરનારા, શેકથી પીડાતા, ચોધાર આંસુએ વહેવડાવનારા, વિલાપ કરનારા એવા સેંકડો માણસેથી ચિક્કાર ભરેલી તે નાવ આખરે પાણીની અંદરના જ પર્વત શિખર (ખડક) સાથે અથડાઈ પડી અને मातांनी साथै ४ ( संभगकूवतोरणा तना ५२तसो भने त तूटी For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy