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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org " अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० ९ माकन्दिदारक चरितनिरूपणम् ६७१ गमनवती, 'सोमाणी विव तव चरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववरवहू' शोचन्तीव तपश्चरणक्षीणपरिभोगा च्यवनकाले देववरवधूः- तपश्चरणक्षीणपरिभोगा=भुक्ततपवरणफला च्यवनकाले= देवभवस्थितिक्षयसमये देववरवधूरिव शोचन्ती = तद्वस्थितजनविषादयोगात् शोकं कुर्वतीव दृश्यते । पुनः सा नौका कीदृशी जाता इत्याहसंचयिकदुकबरा' इत्यादि । ' संचुण्यिकटुकूबरा ' संचूर्णितकाष्टकूवरा संचूर्णितानि= अत्यर्थं चूर्णी भूतानि काष्ठानि कुबरं च मुखं यस्याः सा तथा, 'भग्गमेढी ' भग्नमेधिः भग्नः = टिवः मेधिः =सकल नौकाधारभूतः स्तम्मो यस्याः सा तथा, 'मोडियसहस्रमाला ' मोटितसहस्रमाला - मोटितः =भग्नः सहस्रमाला = सहस्रसंख्याजनाधारभूतो माल: = उपरितनभागो यस्याः सा तथा, 'सुलाइयर्वक परिमासाळाचितवक्रपरिमासा शूलावितइव=शूलारोपितइव वक्रः = कुब्जः परिमासः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ती हुई लड़खड़ाने लग जाती है उसी प्रकार यह नौका भी तरंगो से आहत होकर मानों थकावट की वजह से ही चलने में लड़खड़ा रही थी । ( सोयनाणी विव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देवरवहू ) तपश्चरणका जिसने फल भोग लिया है और अब जिसके च्यवन का समय आ गया है ऐसी देवाङ्गना जिस प्रकार शोक से व्याकुल- चंचल -बन जाती है उसी प्रकार यह नौका भी बिलकुल चंचल बन गई थी । ( संचुण्णिय कबरा) उस समय इस नौका के कष्ट और कूपर मुख-चूर्णी भूत बन चुके थे । ( भग्गमेढी ) इसका अपना सकल आधार भूत स्तंभ टूट चुका था । ( मोडिय सहस्स माला ) सहस्रसंख्यजनों का आधार भूत उपरितन भाग इसका भग्न हो चुका था । (सूलाइ यक परिमासा) शूल पर आरोपित किये हुए के समान इसका परि ડીયાં ખાવા માંડે છે તેમજ તે નાવ પણ માએથી અથડાઇને જાણે થાકીને લથડીયાં ખાવા ન માંડી હાય ! (सोयमाणी विव तवचरणखीणपरिभोगा चयणकाले देववर वहू ) તપનુ ફળ જેણે ભેગવી લીધું છે અને હવે પતન થવાના સમય આવવાથી દેવાંગના જેમ શાક વ્યાકુળ-ચંચળ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે જ मी नाव पशु यंभज मनी गई डती. ( सं चुण्णियककूवरा ) भोलंगोथी અથડાતાં અથડાતાં ત્યાં સુધી નાવના કાષ્ટ અને કૃષર-મુખ નાશ પામ્યાં डा. ( भगामेंढी ) नावनो आधार भूत स्तल ( थांलो ) तूटी पडयेो हतो. ( मोडिय सहरसमाला ) डुमरो भाणुसो नयां माश्रय भेजनी शडे तेथे नावनो ६५२नो लाग तूटी गयो हतो. ( सुलाइयव कपरिमासा ) शूझ ५२ भूम्यामां For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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