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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगारधर्मा मृतवर्षिणी ४० अ० ९ मा कन्दिदारकचरितनिरूपणम् ५७ अध्र्वगच्छन्तीच, तथा सिद्धविद्याविद्याधरकन्यकेच धरणीतलाद् उप्पयमाणी' उत्प.. न्ती-ऊर्ध्वमुच्चलन्ती, 'भट्टविज्जा' भ्रष्टविद्या विस्मृतविद्या विद्याधरकन्यकेव गगनतलाद् 'ओवयमाणी' अवपतन्ती अधोनिपतन्ती, 'महागरुलवेगवित्तासिया महावरुड वेगवित्रासिता-महागरुडवेगेन भयाक्रान्ता 'भुयगवरकन्नगाविव' भुजगवरकन्यकेव नागकन्येव 'विपलायमाणी' विपलायन्यी, 'महाजणरसियसदवित्तस्था' महाजनरसितशब्दवित्रस्ता-जनसमूहकोलाहलशब्देनभीता — ठाणभट्ठा ' स्थानभ्रष्टा स्वस्थानच्युता 'आसकिसोरीविव' अश्वकिशोरीव-अश्ववत्सावत् ' धावमाणी' धावमाना, गुरुजणदिट्ठावगहा' गुरुजनदृष्टापराधा-गुरुजनैः मातापितृ-श्वशुरा२ वहीं २ वार २ नीचे ऊँचे उछलने लगती। (सिद्धविज्जाधरणीयला. ओ उप्पयमाणी विज्जाहरकन्नगा इव) उस समय वह नौका ऐसी ज्ञात होती थी कि मानो सिद्ध विद्यावाली कोई विद्याधर कन्या ही धरणीतल से निकलकर ऊपरको उठ रही है ( भट्ट विज्जाहरकन्नगागगणतलाओ ओवयमाणी विव) या जिसकी विद्याभ्रष्ट हो चुकी है जिसे विद्या विस्मृत हो गई है-ऐसी कोइ विद्याधर कन्या मानों आकाश से नीचे उतर रही है-(महागरुलवेगवित्तामिया विपलायमाणी भूयग घरकमगाइव) या गरुड़ के भयोत्पादक वेगसे आक्रान्त हुइ मानों कोई नागकन्या ही इधर उधर भाग रही है (महानणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा धावमाणी आस किसोरी विव ) या जनसमूह के कोलाहल से भय भीत होकर मानों कोई घोडी की यछेरी ही अपने स्थान से भ्रष्ट होकर इधर उधर दौडती फिर रही है (गुरुजणदिठ्ठावराहा णिगुज माणी (सिद्धविज्जाधरणीयलाओ उत्पयमाणी विज्जाहरकन्नगा इव ) ते १ते મોજાંઓમાં ઉછળતી તે નાવ સિદ્ધ વિદ્યાવાળી કે વિદ્યાધર કન્યા પૃથ્વી 6५२थी नीजी 6५२ ती हाय तेम सागती ती. (भद्र विज्जा विज्जाहर कन्नगा गगणतलाओ ओवयमाणीविव अथवा त। विद्याभ्रष्ट थयेसी, विद्या विरभूत थयेटी वी विद्याधर न्या मामाथी नीये उतरती डाय, (महागरू वेगवित्तासिया विपलायमाणी भूयगवरकन्नगा इव ) 2424 तो १२॥ ભત્પાદક વેગથી આકાંત થયેલી કેઈ નાગકન્યા જ આમતેમ નાસભાગ ४२तीय, ( महाजणरसियसद्दवित्तत्था ठाणभट्ठा धावमाणी आसक्रिसोरी विव ) अथवा तो माणुसोना intथी भयभीत ७ घडीनुछे३ त.. माथी नासीन मामतेम तुं तु डाय, ( गुरुजणदिवा वर हा णिगुज माणी सुयणकुलकनगा विव ) मथा तो मुटुमना पासमानु For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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