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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते मरहन्नकभावकवर्णनम् २६९ अथवा-'नो दढधम्मे ' नो दृढधर्मा सोऽरहन्नको नास्ति दृढधर्मा ? स च शीलव्रतगुणान् किं चालयति अपनयति यावत् परित्यजति, किं वा नो परित्यजति अत्र यावत् करणात्-क्षोभयति किंवा नो क्षोभयति ? खण्डयति किंवा नो खण्डयति ? उज्झति किंवा नो उज्झति ? इति बोध्यम् । इति कृत्वा इत्येवं मनसि विचार्य, एवं संप्रेक्षे, संप्रेक्ष्य अवधिम् अवधिज्ञानं प्रयुञ्जे प्रेरयामि प्रयुज्य देवानुप्रियम् आभोगयामि-पश्यामि । आभोग्य उत्तरपौरस्त्यम्-ईशानकोणदिग्भागं गच्छामि, गत्वा, ' उत्तरविउनियं' उत्तरवैक्रियं करोमि, कृत्वा तयोत्कृष्टया गत्या-देवस. म्बन्धिन्या गत्या यत्रैव समुद्रः, यत्रैव देवानुपियस्तत्रैवोपागच्छामि, उपागत्य देअरहन्नगं किं पियधम्मे ? नो पियधम्मे दढधम्मे नो दढधम्मे ? सील व्वयगुणे किं चालेंति, जाव परिचयइ, णो परिच्चयइ) कि चलो अरहनक के पास चलें-और चलकर यह ज्ञातकरें.कि अरहन्नक को धर्म प्रिय है, कि नहीं है, वह धर्म में दृढ है कि नहीं है । वह अपने शीलों को, व्रतो को और गुणों को छोड़ता है अथवा नहीं छोडतो है, उन्हें क्षुभित करता है, या नहीं करता है, उनका खंडन करता है या नहीं करता है। प्रवचन में एक देश से भी उस में अतिचार लगाता है या नहीं लगाता है (त्तिकटु एवं संपेहेमि ) हे अरहन्नक ! मैंने ऐसा विचार किया (संपेहित्ता ओहिं पउंजामि ) विचार करके फिर मैंने अपने अवविज्ञान को जोडा (पउंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभो. इत्ता उत्तरपुरथिम० उत्तर विउव्वियं० ताए उकिट्ठाए गइए जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामि) अवधिज्ञान को जोड कर मैंने उसके द्वारा आप देवानुप्रिय को देखा। पियधम्मे नो दढधम्मे ? सीलव्यय गुणं किं चालेंति जाव परिचयइ, णो परिचयइ કે ચાલે અરહનકની પાસે જઈએ અને જઈને તપાસ કરીએ કે તેને ધર્મ પ્રિય છે કે કેમ ? તે પિતાના શીલેને, વ્રતને અને ગુણેને ત્યજે છે કે કેમ? તેમને શ્રુભિત કરે છે કે નહિ તેમજ તેમનું ખંડન કરે છે કે કેમ? अवयनमा से देशथी ५५५ ते मतिया२ सा छ भ? (ति कडे एवं संपेहेमि ) 3 अन्न ! भे' मा प्रमाणे विया२ . ( सपैहित्ता ओहिं पडं जामि ) विया२ ४१२ मे भा२। अधिज्ञानयी सति साडी (पडंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि आभोइत्ता उत्तरपुरथिमं उत्तर विउब्वियं०ताए उक्ट्ठिाए गइए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामि અને તેની સંગતિ વડે દેવાનુપ્રિય તમને મેં જોયા. For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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