SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ०८ अङ्गराजचरिते अरहनक श्रावकवर्णनम् ३५३ 9 , O स्थानं संप्राप्तेभ्यः, यदि खल्वहम् एतस्मादुपसर्गाद् पिशाचकृत संकटात् निर्वि नो भवामि मुञ्चामि तदा मे तथा = तावत्पर्यन्तं प्रत्याख्यातव्यम् ० चतुर्विधभक्तप्रत्याख्यानं मयाऽनुष्ठेयमित्यर्थः इति कृत्वा साकारभक्तं = चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याति । ततस्तदनन्तरं खलु स पिशाचरूपधारी देवः, यत्रैवारनकः अरहन्नकनामकः श्रमणोपासकः = श्रावकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यारहन्नकम् - एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत - हंभो ! अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित ! = अप्रार्थितं एवं वयासी) बैठ कर उस ने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाई । और उसे मस्तक पर रख कर आवर्त करते हुए वह इस प्रकार कह ने लगा - ( णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं ) यावत् सिद्धगति को प्राप्त हुए अर्हत प्रभुओं को नमस्कार हो (जइणं अहं एत्तो उवसग्गाभो मुचामि तो मे कप्प पारिन्तए) यदि मैं इस पिशाच कृत उपसर्ग से बच गया तो ही अशनादि ग्रहण करूँगा (अहं णं एतो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पथ Farmera ) यदि मैं इस उपसर्ग से नहीं बचा तो मेरे तावत्पर्यन्त चतुर्विध आहार का त्याग है ( त्ति कट्टु ) ऐसा विचार कर ( सागारं भन्तं पच्चक्खाइ) उसने साकार चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान कर दिया। अर्थात सागारी संधारा किया - (तरणं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोचासए तेणेव उवागच्छद्द) इस के बाद वह पिशाच रूप धारी देव जहां वह श्रमणोपासक अरहन्नक बैठा था-वहां आया બેસીને તેણે પોતાના અને હાથની 'જિલ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર भूडीने श्वतां ते या प्रमाणे उडेवा लाग्यो- " णमोत्थुर्ण अरहंताणं जाव सपत्ताणं" यावत्-सिद्धगतिने पाभेला भईत प्रलुग्गाने भारा नमस्ठार छे. ( जइणं अहं एतो उवसग्गाओ मुचामि तो मे कप्पर पारितए ܕܕ જે હું આ પિશાચના ઉપસૌથી બચી જઈશ તેાજ આહાર વગેરે श्रडुणु उरीश. " अह ंणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाए वे આ ઉપસર્ગ થી મારી રક્ષા નહિ થાય તે તાવપન્ત ચારતના आहारा हु त्याग ४३ छ "त्तिकट्टु " साम विचारीने " सागर भत्तं पच्चक्खाइ” तेथे साअर यतुविध आहारनं आत्याभ्यान यु. એટલે કે તેણે સાગારી સથારા કર્યાં ( तण से पिसायरूये जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छ ) ત્યાર બાદ પિશાચ રૂપ ધારીદેવ જયાં શ્રમણેાપાસક બેઠાહતા ત્યાં આળ્યે, For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy