SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ०८० ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे * कुंभगस्स ' कुम्भकस्य कुम्भकनामकस्य राज्ञः प्रभावत्याः प्रभावतीनाम्न्या देव्यः ' कुच्छिसि ' कुक्षौ ' आहारवक्कंतीए' आहारव्युत्क्रान्त्या आहारपरिवर्तनेन मनुष्योचिताहारग्रहणेनेत्यर्थः, ‘सरीरवक्कंतीए ' शरीरव्युत्क्रान्त्या देवशरीरपरिवर्तनपूर्वकमनुष्यशरीरग्रहणेनेत्यर्थः । भववक्कतोए' भवव्युत्क्रान्त्या = देवभवं विहाय मनुष्यभवग्रहणेन 'गम्भत्ताए वक्ते' गर्भतया व्युत्क्रान्तः गभरूपेण समुत्पन्नः । तस्यां रजन्यां च खलु चतुर्दश महास्वनाः प्रभावती देव्या दृष्टः। हे वासे ) भरत क्षेत्र में (मिहिलाए रायहाणीए ) मिथिला राजधानी में (कुंभगस्स रन्नो पभावइए देवीए कुच्छिसि) कुंभक राजाकी प्रभावती देवी की कुक्षि में ( आहार वक्रतीए) आहार के परिवर्तन से-मनुष्यो चित आहार के ग्रहण से, ( सरीरवक्कंतीए ) शरीर की व्युत्क्रान्ति से देव शरीर के परिवर्तन पूर्वक मनुष्य शरीर के ग्रहण से, ( भव वक्कंतीए ) भव की व्युत्क्रान्ति से देव भव को छोड़कर मनुष्य भव के ग्रहण से ( गम्भत्ताए वकं ते ) गर्भरूप से उत्पन्न हुए । जब यह प्रभावती की कुक्षी में गर्भ रूप से उत्पन्न हुए तब ( गहे सु उच्चट्ठाणढिएसु) सूर्यादिग्रह उच्चस्थान पर स्थित थे । (दिसाप्सु सोमासु ) चारों दिशायें दिग्दाह आदि उपद्रवों से रहित थी ( विति मिरासु विसुद्धासु ) तीर्थकर के गर्भावास के प्रभाव से वे अन्धकार रहित बन गई थीं एवं झंझावात रजकण आदि से रहित हो कर निर्मल हो गई थीं। सरत क्षेत्रमा । 'मिहिलाए रायहाणीए" मिथिला पानीमi कुंभगस्सरन्ने। पभावइए देवीए कुच्छिसि " म २०नी प्रभावती देवीना ४२म “आहार वक्कंतीए " महारानी परिवर्तनथी भानवायित माहारना थी " सरीर वक्तीए” शरीरनी व्यु.तिथी थेट है व शरीरना परिवतन तमा मनुष्य शरी२ना था “ भववक्कंतीए " अपनी युतिया ३१ सपने त्यने मनुष्य -म१२ अ ४२वानी मापेक्षाथी “गन्मत्ताए वक्कंते " ગર્ભ રૂપે જન્મ પામ્યા. ___यारे ते प्रमावतीन २मा ३५ सतया त्यारे “ गहेसु उच्चद्वाण द्विएसु " सूर्य कोरे अडी अन्य स्थान ता. दिसासु सोमासु यारे हिमाहिहाड कोरे उपद्रव पानी ती. “ वितिमिरासु विसुद्धासु" તીર્થકર ના ગર્ભવાસના પ્રભાવથી દિશાઓ પ્રકાશ યુક્ત તેમજ ઝંઝાનિલ રજકણ વગેરેથી રહિત થઈને સ્વચ્છ બની ગઈ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy