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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मारधर्मामृतवर्षिणी टीका म० ७ घायसाचाहरितहिए.म २१५ - - - परीक्षार्थ ते पञ्च शाल्यक्षता हस्ते दत्ता आसन्, 'सेयं ' श्रेया-उचितम् अत्य पतियाचितुमित्यनेन संबन्धः ! एवं खलु मम कल्ये यावज्ज्वलतिम्सूर्योदये सतिसमाते पञ्चशास्यवतान् ‘पडिजाइत्तए ' प्रतियाचितु पतिग्रहीतुम्, 'जाणामि' जानामिन्ताधुना निर्णयामि यस्- 'जान' यावत्-यावरसंख्यकाः शाल्यक्षतामया दत्तास्ते 'ताव ' तावत्-तावनपरिमिताः कया स्नुषया 'किहं ' कथंकेन प्रका रेण संरक्षिताः संगोषिताः संवद्धिता यावत् 'तिक ' इति कृखा इत्यभिपाय मनसि निधाय एवं-श्चमाण कारेण संपेक्षयति-विचारयति, संप्रेक्ष्य कल्ये बावज्ज्वलति प्रभातसमये विपुलमशन पानं खाचं स्वायं चतुर्विधमाहारम्. उपस्का संबच्छरे चहं सुल्हाण परिक्षणयाए ते पंच सालि अक्खया हत्थे दिना-तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलं ते पंच सालि अक्खए पडिमाइतए) कि मैंने आज से गत पांचवे वर्ष में चारों अपनी पुत्रवधूओं के उन की बुद्धि की परीक्षा के निमित्त हाथों में उन पांच पांच शालिअक्षतों को दिया था, तो अब प्रात:काल होते ही जब सूर्योदय हो जायगा-मैं उन पांच शालि अक्षतों को उनसे पीछे मांग लूँ यह उचित है। - (जाव जाणामि ताव काए किण्हं सारक्खिया या संगोविया धा संघडिया जाव त्ति कटु एवं संपेहेर) इससे मैं यह निर्णय कर लूंगा कि जितने शाल्यक्षत मैंने उन्हें दिये थे वे उतने शाल्यक्षत किस पुत्र वधू ने किस प्रकार से संरक्षित किये हैं, सगोपित किये हैं और सबबित किये हैं। इस पूर्वोक्त प्रकार से उसने विचार किया ( संपेहिसा (एवं खलु मए इओ अईए पंचमे संवच्छरे चउपहाणे परिक्षणयाए ते पंचसालि अक्खया इस्पे दिमा- सेय खलु मम कल्लं ते भाव जसंते पंचसालि अक्खए पडिजाइत्तए) કે આજથી પાંચ વર્ષ પહેલાં મેં ચારે પુત્રવધૂઓને તેમની બુદ્ધિ પરીક્ષા માટે તેમના હાથમાં પાંચ શાલિકણે આપ્યા હતા તે હવે સવારે સૂર્ય ઉદય પામતાની સાથે જ હું તેમની પાસેથી પાંચે શાલિકણે પાછા માગું એ જ ઉચિત છે. (जाब जाणामि तार कार किण्हं सारक्खिया वा संगीविया वा संवड़िया जाव त्ति कहु एवं संपेहेइ) એનાથી મને એ વાતની ખબર પડશે કે મેં જેટલાં શાલિક તેમને આપ્યા હતા તેને કઈ પુજાએ કેવી રીતે સક્ષિત, સગેપ્તિ તેમજ સંવર્ધિત કર્યા છે. આ રીતે તેણે વિચાર કર્યો For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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