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हाताधर्मकथागसूत्र एजासि तिकटुममहत्थंसि पंच सालि अक्खए दलयइ तं भवियत्वमेत्थ कारणेणं तिकडु एवं संपेहेइ संपेहित्ता ते पंच साल अक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ पक्खिवित्ता ऊसीसा मूले ठावेइ ठावित्ता तिसंझं पडिजागर. माणी विहरइ ॥ सू० ४॥ ___टीका-एवं भोगवतिकामपि-भोगवती नाम्नों स्नुषामप्याह्वयति नवरं 'सा' भोगवती श्वशुरप्रदत्तपञ्चशालिकणरूपानक्षतान् स्वस्थाने नीत्वा 'छोल्लेइ' तुषरहितं करोति 'छोल्लित्ता' निष्तुषीकृत्य ' अणुगिलइ' अनुगिलति-भक्षयति, ' अणुगिलित्ता' अनुगिल्य भक्षयित्वा 'जाया' स्वकार्यसंप्रयुक्ता जाताचाप्यासीत्-स्वगृहकार्यकरणे लग्नाऽभवदिति भावः । एवमनेनैव प्रकारेण रक्षितामपि-रक्षितानाम्नी तृतीयां स्नुषामप्याहयति, आहूय तेन पंचसंख्याः शालिकणा दत्ताः, नवर सा तान् गृह्णाति, रम गृहीत्वा चायमेतद्रूपः ‘अज्झथिए ' आ
एवं भोगवतिया एवि ' इत्यादि । सूत्र ... टीकार्थ-( एवं भोगवतियाए वि) उसी तरइ भोगवतिका नामकी अपनी पुत्रवधू थी-उसे भी धन्यसार्थवाहने बुलाया (गवरं) इसमें विशेषता केवल इतनी रही कि (सा छोल्लेइ) उसने उन शाल्यक्षतोंको अपने स्थान पर लेजाकर तुषरहित किया (छोल्लित्ता अणुगिलइ ) और तुष रहित कर वहउन्हे खा गई ( अणुगिलित्ता जाया ) खाकर बादमें अपने काम में लग गई । (एवं रक्खिया वि) इसी प्रकार धन्यसार्थवाहने अपनी तीसरी रक्षिता नामकी पुत्रवधू को बुलाया (णवरंगेण्डइ, गेण्हित्ता इमेयारूवे आन्झथिए ० ) बुलाकर उसे भी पांच शालिकणो को दिया ।
‘एवं भोगवतियाएवि' त्यादि --टी -(एव भोगवतियाए वि) ॥ प्रमाणे धन्यसाथ वाडवति। નામની પિતાની બીજી પુત્રવધૂને બોલાવી (જીવ) ભગવતિકાના વિષે વધારાનું એ
न है ( सा छोल्लेइ ) तेथे शामिण पोताना निवास स्थान से न तुप ( २२) १५२ना मनाया (छोल्लित्त। अणुगिलइ ) मने ules नांतरा सा ४शने तेभने मा . ( अणुगिलित्ता जाया ) माया ५छ। तपाताना ममा परेवा 8. (एव रक्खिया वि ) 0 शत धन्यसार्थवा चातानी श्री पुत्रवधू २क्षिताने माताकी (णवर गेण्हइ गेण्हित्ता इमेयारूवे अझंथिए ) मोसावीन तभने ५५५ पांय लि। माया. २क्षिता शालि
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