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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममणारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ७ धन्यसार्थवाहचरिचनिरूपणम् १९३ 6 तस्मात् कारणात् यदा यस्मिन् समये खलु मम तातःश्वसुर इमान् पञ्च शाल्यक्षतान् याचिष्यति ' तया णं ' तदानीं तस्मिन्नेव समये खलु अहं 'पल्लंतराओ' पल्लान्तरात् - कोष्टागारमध्ये अन्यतरात्पल्लकात् 'अन्ने' अन्यान् पञ्चशाल्यक्षतान् 'गहाय ' गृहीला 'दाहामि ' दास्यामि, इति कृत्वा - इति मनसि निधाय ' एवं संपेtइ' एवं संप्रेक्षते - चिन्तयति ' संपेहित्ता ' संप्रेक्ष्य - पर्यालोच्य ' ते ' तान् श्वसुर प्रदत्तान् पश्चशाल्यक्षतान् ' एगंते ' एकान्ते ' एडेइ ' एडति - प्रक्षिपतिपातयतीत्यर्थः ' एडित्ता' प्रक्षिप्य ' सकम्मसंजुत्ता' स्वकर्म संप्रयुक्ता-जाताचाप्य भवत् स्वगृहादिकार्यकरणे उक्ताऽऽसीदित्यर्थः ॥सू० ३ ॥ , मूल्यू- एवं भोगवतियाए वि, णवरं सा छोल्लेइ छोल्लित्ता अगिलइ अणुगिलित्ता जाया, एवं रक्खियावि, णवरं गेण्हइ गेण्हित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए० एवं खलु ममं ताओ इमस्ल मित्तनाइ० चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ सहावेत्ता एवं वयासी - तुम पुत्ता मम हत्थाओजान पडिदिजा कि पंच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाणं अहं पल्लंतराओ अंते पंच सालिअक्खए गहाय दहामित्ति कट्टु एवं संपेहेइ संपेहिता ते पंच सालि अक्खए एगंते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था ) जब ऐसा कितने ही पल्यंक चावलों के कोष्ठागार में भरे हुए रखे हैं तो जिस समय श्वशुरजी इन पांच शाली - अक्षतों को मुझसे मांगेंगें मैं उसी समय कोष्टागार के मध्य में से किसी एक दूसरे पत्यंक से लेकर इन पांच शालि - अक्षत्रों को दे दूंगी। ऐसा उसने विचार किया । विचार करके बादमें उसने श्वसुरप्रदत्त पांचशालि अक्षतो को एकान्त में दिया । और डालकर फिरवह अपने घर के काम करने में लग गई || सू० ३ ॥ जयाणं ममं ताओत्ति कट्टु पंच सालि अक्खए जाइस्सइ तयाण अहं पल्लंतराओ अते पंच खालि अक्खए गहाय दहामि तिकट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ते पंच सालि अक्खए एगंते एडेइ, एडित्ता सकम्मसंजुता जाया यावि होत्थ । ) જ્યારે, ઘણા પલ્યા ચાખા કાઠારમાં છે તે જે વખતે સસરા પાંચ શાતિકણા માગશે તે વખતે પાંચ શાલિકા કાઠારના પક્ષકામાંથી લઈને તેમને આપી દઈશ. આ પ્રમાણે વિચારીને સસરાએ આપેલા પાંચ શાલિકણાને એટા પુત્રની વધુએ એક તરફ ફેકી દીધા. અને ફૂંકીને પોતાના હમેશાના ઘરકામમાં પરાવાઈ ગઈ. | સૂત્ર "" 3 แ 66 66 शा० २५ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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