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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटी० अ० ७ धन्यसार्थवाहचरितनिरूपणम् १७९ गिहे नयरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसइ० अड्डे० भद्दा भारिया अहीण पंचेंदिय० जाव सुरूवा तस्स णं धण्णस्त सत्थवाहस्स पुत्ता भदाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया होत्था तं जहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए तस्स णं ध. पणस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था,तं जहा-उंज्झिया भोगवइयारक्खइया रोहिणिया।सू०१॥ टीका-'जइणं भंते ' इत्यादि-अथ जम्बूस्वामी पृच्छति हे भदन्त ! यदि खलु श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् मुक्तिसंप्राप्तेन षष्ठस्य ज्ञाताध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, हे भदन्त सप्तमस्य खलु ज्ञाताध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं जम्बू स्वामिना प्रश्ने कृते सति सुधर्मास्वामी प्राह एवं खलुजम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् 'जहणं भंते ! समणेणं' इत्यादि । टीकार्थ-(जहणं भंते !) जंबूस्वामी पूछते हैं कि हे भदंत ! (समणेणं जाव संपत्तणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ?) श्रमण भगवान् महावीर ने जो मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं छढे ज्ञाताध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्ररूपित किया है तो हे भदंत ! सप्तम ज्ञाताध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्ररूपित किया है ? (एवं खलु जंबू ! ) इसका उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी से कहते है कि हे जंबू ! सुनो श्रमण भगवान महावीर ने जो सातवें ज्ञाताध्ययन का अर्थ प्ररूपित किया है- वह इस प्रकार है ( तेगं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय 'जइण भते ! समणेण'' त्या ! साथ-(जइण भते !) भू स्वामी प्रश्न पूछे छे है महन्त ! (समणेण' जाव संपत्तण छहस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते सतमस्स ण भंते नायज्मयणस्स के अढे पण्णत्ते ? ) भुति मेरा श्रम लगवान महावीरे छ। જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ પૂર્વોક્ત રીતે રજુ કર્યા છે ત્યારે હે ભદંત ! તેઓશ્રીએ सातभा ज्ञाताध्ययननी । अथ प्र३पित - छ ? ( एवं खलु जबू!) मा પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં શ્રી સુધર્મા સ્વામી તેમને કહેવા લાગ્યા કે હે જે બ્રા સાંભળે! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા જ્ઞાતાધ્યયનને અર્થ આ પ્રમાણે For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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