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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैनेगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अं० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १६५ ♦ टीका - ततस्तदनन्तरं खलु ' सेलए ' शैलकराजर्षिः 'पंथगपामोक्खा ' पान्थकप्रमुखाः, 'पंच' पञ्च, अणगारसया' अनगारशतानि बहूनि वर्षाणि ' सामन्नपरियागं ' श्रामण्यपर्याय 'पाउणित्ता' पालयित्वा यत्रैव पुण्डरीकः पुण्डरीकपर्वतस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथैव स्थापत्यापुत्रः सिद्धस्तथैव सिद्धः | मासिकीं संलेखनां कृत्वा केवलीभूत्वा सिद्धा मुक्ता जाता इत्यर्थः । एवमेव शैलकराजर्षिवदेव, हे श्रमणा आयुष्मन्तः । योऽस्माकं निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा यावद् प्रमादं परित्यज्य अभ्युद्यतेन सोद्यमेन प्रदत्तेन तीर्थकरानुज्ञा ' तरणं सेलए पंथगपामोक्खा ' इत्यादि । टीकार्थ - (एणं) इसके बाद (सेलए) वे शैलक राजऋषि और (पं-12s गपामोक्खा पंच सय अणगारसया ) पांथक प्रमुख पांचसौ अनगार (बहूणि वासाणि) अनेक वर्षों तक (सामन्नपरियागं पाउणित्ता श्रामण्यपर्याय का पालन करके ( जेणेव पोंडरीये पवए तेणेव उवागच्छंति ) जहां पुंडरीक पर्वत था वहां आये । ( उवागच्छित्ता जहेव थावच्चा पुत्ते तव सिद्धा) वहां आकर स्थापत्यापुत्र अनगार की तरह १ मास की संलेखना कर केवली होकर मुक्त हो गये । अर्थात् सिद्ध हो गये । ( एवा मेव समणाउसो जो अम्हं निग्गंधो वा निग्गंधी वा जाव विहरिस्सह ) इसी तरह शैलक राजऋषि की तरह - ( समणाउसो) हे आयुष्मंत श्रमणो ! ( जो अहं निग्गंथो वा निग्गंधी वा जाव विहरि स्सइ) जो हमारा निर्ग्रन्थ श्रमण और निर्ग्रन्थ साध्वीजन यावत् प्रमाद ( तएणं सेलए पंथगपामोक्खा ) इत्यादि टीडार्थ - (तएणं) त्यार माह (सेलए) शैस राऋषि ने (पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया ) पांथ प्रभु यांयसेो अनगार ( बहूणि वासाणि) धji वर्षो सुधी ( सामन्नपरियागं पाउणित्ता ) श्रीभएय पर्यायनुं पालन अरीने ( जेणेव पोंडरोये पव्त्रए तेणेत्र उवागच्छति ) ल्या पुंडरी पर्वत हतो त्यां याव्या. (उत्रागाच्छित्ता जहेवयावच्चा पुत्ते तहेव सिद्धा ) त्यां मावीने स्थापत्या પુત્ર અનગારની જેમ એક માસની સલેખના કરીને કેવળી થઈ મુક્ત થઈ ગયા. એટલે કે તેએ સિદ્ધ થયા ( एवामेत्र समणाउसो जो अम्म निग्गंयो वा निग्गंधी वा जाव विहरिसइ) या प्रमाणे शैव ऋषिनी प्रेम (समणाउसो ) हे आयुष्मंत श्रम! ! ( जो अम्' नग्गंथो वा faint वा जाव बिहरिस्सइ) ने संभारा निर्भथ श्रमशु भने નિગ્રંથ સાધ્વી જત પ્રમાદ વેગેરેને ત્યજીને સેદ્યમ પ્રદત્ત-તથ કાનુજ્ઞાપિત For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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