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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शैलकराजऋषिचरितनिरूपणम् १९ राजा चिकित्सकान् वैद्यान् शब्दयति आयति.। शब्दयित्वा-आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-यूयं खलु देवानुप्रियाः ! शैलकस्य राजर्षेः 'फासु एसणिज्जेण' प्रासुकैपणीयेन यावत् औषधभेषजेन : तेगिच्छं' चिकित्सा रोगनिवारणोपायम् आवर्त यत कुरुत. । ततस्तदनन्तरं चिकित्सकाः वैद्या मण्डुकेन राज्ञवमुक्ताः हृष्टतुष्टाः प्रमुदिताः सन्तः शैल कस्य यथामवृत्तः साधुकल्प्यैः प्रासुकैषणीयरित्यर्थः, औषधभैषज्यभक्तपानैश्चिकित्सां व्याधिप्रतीकारम्. आवर्तयति करोति ' मज्जपाणयं च, मद्यपानकंच-मद्यस्य, निद्राकारकद्रव्यविशेषस्य पानं च 'से' तस्य शैलकस्य उपदिशन्ति । कर आज्ञा लेकर ठहर गये । (तएणं से मंडुए चिगिच्छए सद्दावेइ) इसके बाद मंडुक राजा ने वैद्योंको बुलाया (सदावित्ता एवं क्यासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा (तुन्भे णं देवाणुप्पिया । सेलयस्स फासुएसणिज्जेण जाव चिगिच्छं आउटेहे ) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शैलक राज ऋषि अनगार की प्रासुक एषणीय औषध भेषज से चिकित्सा करो। (तएणं ते तेगिच्छया मडुएणं रन्ना एवं वुत्ता हट्ठ तुट्ठा समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिंओसहभेसज्जभत्तपाणेहिं चिगिच्छं ओउट्टे ति) इस प्रकार मंडूक राजा द्वारा कहे गये उन वैद्यों ने हर्ष एवं संतोष से युक्त होकर उन शैलक राजऋषि की यथा प्रवृत्त निर्दोष औषध भेषजों से तथा भक्त पानों से चिकित्सा करना प्रारंभ कर दिया। (मज्ज पाण च से उव. दिसति ) और निद्रा कारक द्रव्य विशेष का पीना उन्हें बतला दिया। यहां यह जो मद्य शब्द प्रयुक्त हुआ है वह मदिरा अर्थ का वाचक नहीं हैं । किन्तु निद्रा कारक पेयद्रव्य विशेष का वाचक है । क्यों कि साधु मेजवान तसा त्यां या. (तएण से मंडुर चिगिच्छए सद्द वेइ) त्यार माह भ४ २००४ वैधोने मोसाव्या. ( सहावित्ता एवं वयासी) मासावीन तमन मा प्रमाणे ४धु (तुभेण देवाणुप्पिया ! सेलयस्स फासुएसणिज्जे ण जाव तेगिच्छ आउद्देह ) कानुप्रिये ! तमे शैत २८षि मनजारनी प्रासुर अषणीय मौषध मने लेषण थी पित्सा ४२१. (तएण' ते तेगिच्छया मंडुएण रना एवं'वुत्ता हट्ठा तुट्ठा, समाणा सेलयस्स अहापवत्तेहिं ओसहभेज्जभत्तपणेहि चिगिच्छ आउट्टेति ) २मा शत भडू ना पात सनी ने बत तमा સંતર્ણ થયેલા વિદ્યા શૈલક રાજઋષિની ઉચિત ઔષધ અને ભેષજોથી તેમજ सतपानाथी वित्सिा (ele ) ४२॥ साया. (मज्जपाणयंच से उपदिसति) અને નિદ્રાવશ થઈ શકાય તેવા પદાર્થ વિશેષને પીવાની વિધિ તેમને સમवी. मी ( मज्ज) भय ५६ माये। छे ते मदिरा (हार) नाम For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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