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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०७ मेनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् अथ स्थापत्यापुत्रः स्याद्वादमवलम्ब्योत्तरं करोति 'जण्णं सुया !' इत्यादि। यत् खलु हे शुक । ' दबट्टयाए एगे अहं ' द्रव्यार्थतया एकोऽहम् । द्रव्यत्वेनामे. कोऽस्मि जीवद्रव्यस्य एकत्वात् , न तु प्रदेशाभिप्रायेण । 'नाणदंसणट्टयाए दुवेवि अहं' ज्ञानदर्शनार्थतया द्वावप्यहम् । ज्ञानदर्शनार्थद्वयाभिप्रायेण द्विस्वभावकोऽहमस्मीत्यर्थः । द्वावप्यहमित्यनेन अनेकोऽपि भवानितिप्रश्नस्याप्युत्तरं प्रदत्तम् , उक्तरीत्या द्विस्वभावकत्वाम् श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवाना चात्मनोऽनेकत्वाच्च । यथा एको देवदत्त एकस्मिन्नेवकाले पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वादीननेकान् स्वभावान् पाप्नोति । अहं ) सो भदंत ! आप ऐसा किस अर्थ को लेकर कह रहे हैं कि मैं एक भी हूँ यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ हे शुक! ऐसा जो मैं कह रहा हूँ सो किस अर्थ की अपेक्षा को लेकर कह रहा हूँ यह सुनो (जपणं सुया ! दवट्ठयाए एगे अहं णाणदंसणट्ठयाए, दुवेवि अहं, पए सट्टयाए, अक्खए वि अहं अधए वि अहं अवढिए वि अहं उवओगट्टयाए अगभूयभावभविए वि अहं ) मैं एक हूँ ऐसा जो मेरा कहना है वह हे शुक ! द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा है। (द्रव्याथिक नय का विषय एक अखण्ड द्रव्य होता है। अतः उस दृष्टि से मैं द्रव्य को एक होने की वजह से एक है। प्रदेशों की अपेक्षा से एक नहीं हूँ । ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा से मैं दो रूप भी हूँ दो स्वभा. ववाला भी हूँ। आत्माका लक्षण उपयोग है । यह उपयोग ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से दो प्रकार का है। इस दृष्टि से मैं एक होता हुआ भी दो रूप हूँ। इस कथन से मैं अनेक भी हूँ इस प्रश्न તમે ક્યા આધારે કહી રહ્યા છે કે હું એક પણ છું અનેક પણ છું અને હું અનેક ભૂત, ભાવ અને ભવિક પર્યાય વાળ પણ છું ? સ્થાપત્યા પુત્ર मन॥२ शु परिवार ने १५ मा५ता ४ा साया है-(जण्ण सुया ! दबट्टयाए एगे अहं णाणदसणट्टयाए, दुवेवि अह पएसयाए अक्खए वि अह अव्वए वि अहं अवढिए वि अह उव ओगट्टयाए अणेगभूयभावभविए विअह) 3 शु! " से छु" भा३' मा द्रव्याथि नयनी अपे. ક્ષાએથી છે. દ્રવ્યાર્થિક નયને વિષય એક અખંડ દ્રવ્ય હોય છે, દ્રવ્ય એક હોવાથી, આ દષ્ટિએ હું એક છું, પ્રદેશોની અપેક્ષાથી હું એક નથી જ્ઞાન દર્શનની દષ્ટિએ મારા બે રૂપ પણ છે. હું બે જાતના સ્વભાવવાળ પણ છું. આત્માનું લક્ષણ ઉપયોગ છે. જ્ઞાન અને દર્શનની દૃષ્ટિએ ઉપયોગના બે પ્રકાર થાય છે. આમ હું એક હોવાં છતાં પણ બે રૂપ વાળેછું. આથી “ હું For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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