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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org १०६ ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे " " रपक्षपरिग्रहोऽन्यतरं दूषयिष्यामीत्याशयः । स्थापत्यापुत्रो वदति - 'सुया' इत्यादि । हे शुक ! एकोऽप्यहम् द्वावप्यहम् यावत् - अनेक भूतभावभविकोऽप्यहम् । पुनः शुकः पृच्छति' से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते - एकोऽप्यहं यावत् - अनेक भूतभावभविकोऽप्यहम् ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवस्थित है, नित्य है ' अगभूयभावभविए वि भव' अनेक भूत, भाव और भविक पर्यायों वाला है अनित्य है भूत शब्द का अर्थ अतीत, भाव का अर्थ वर्तमान एवं भविक का अर्थ भविष्यत कालीन है अर्थात् आत्मा के भूत पर्याय रूप अंश वर्तमान पर्याय रूप अंश तथा भविष्यत काल में होने वाले पर्याय रूप अंश उस के अवयव रूप है । इससे आत्मा में अनित्यता सिद्ध होती है । इस तरह शुक ने स्थापत्या पुत्र अनगार के इन समस्त पक्षों को दूषित किया । नित्य पक्ष अनित्य पक्ष साथ विरूद्ध पड़ता है और अनित्य पक्ष नित्य पक्ष के साथ विरुद्ध पड़ता है इत्यादि । अब स्थापत्यापुत्र अनगार स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार उत्तर देते हैं । ( सुया एगे वि अहं दुवेवि अहं जाव अणेग भूयभाव भविवि अहं ) हे शुक! मैं एक भी हूँ, मैं दो भी हूँ, यावत् अनेक भूत भाव भविक पर्यायों वाला भी हूँ ( से केण द्वेणं भंते एवं वच्चह, एगे वि अहं जाव अणेगभूय भावभविए बि छे. ( अवट्टिए भव ) आत्मा अवस्थित छे नित्य छे, ( अणेगभूयभावभविए वि भवं ) अनेङ लूत, लात्र भने लावि पर्याय वाणी हे अनित्य छे, भूत શબ્દના અર્થ ભૂતકાળ છે. ભાવ શબ્દનો અર્થ વતમાનકાળ અને ભાવિક શખ્સને અથ ભવિષ્ય કાળ થાય છે, એટલે કે આત્માના ભૃત પર્યાય અશ, વર્તમાન પર્યાય શ તેમજ ભવિષ્યમાં થનારા પર્યાય રૂપ અંશ તેના ( આત્માના ) અવયવ રૂપ છે. એથી આત્મમાં અનિત્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ રીતે શુક પરિવ્રાજકે સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારના બધા પક્ષેાને સદેષ સિદ્ધ કર્યાં, આત્મા વિષે નિત્ય અને અનિત્ય આમ અને પદ્મા એક બીજાથી વિરૂદ્ધ છે આ પ્રમાણે જ અનિત્યપક્ષ નિત્યપક્ષ ની સાથે વિરુદ્ધ છે. સ્થપત્યાપુત્ર અનગાર સ્યાદ્વાદ सिद्धान्त मुल्य शुम्परित्राने वाण आयतां हे छे - ( सुया एगे वि अह दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभाविभावि रवि अह ) हे शु ! हुं પણ છું, હું એ પણુ છું, અને હું અનેક ભૂત, ભાવ તેમજ ભવિક પર્યાય वाणी या छु ( से केणट्टेण भंते एवं वुच्चइ, एगे त्रि अइ जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ) शुड़े स्थापत्यापुत्र अनगारने हे लहन्त ! For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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