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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् द्रवन् सुखं सुखेन विहरन् , इति संग्रहः । इह-सौगन्धिकानगर्यामागतोऽस्ति, इहैव अस्यामेव नगर्या बहिभांगे नीलाशोके नीलाशोकनाम्नि उद्याने विहरति, तस्यस्थापत्यापुत्रस्य खलु अन्तिके समीपे विनयमूलो धर्मः प्रतिपन्नः मया स्वीकृतः । यदा स्थापत्यापुत्र इहागतस्तदाऽहमपि वंदितुं तत्रगतस्तदा तदुपदिष्टधर्मकथां श्रुत्वा विनयमूलमाहत्तधर्म समीचीनं विज्ञाय स एव धर्मः स्वीकृतो मयेतिभावः ॥२२॥ . मूलम्-तएणं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासीतं गच्छामो सुदंसणा! तव धम्मारियस्त थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेउई पंसिणाइं कारणाई वागरणाई पुच्छामो, तं जइणं मे से इमाई अट्ठाइं जाव वागरइ, तएणं अहं वंदामि नमसामि अहमेसे इमाई अट्ठाइं जाव नो से वाकरेइ, तएणं अहं एएहिं चेव अटेहिं हेउहिं निप्पटूपसिणवागरणं करिस्सामि ॥ सू० २३ ॥ अंतेवासी स्थापत्या नाम के अनगार मुनि परंपरा के अनुसार चलते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए सुख पूर्वक इस सौगंधिका नाम की नगरी में आये और अब वे नीलाशोक नाम के उद्यान में ठहरे हुए हैं। (तस्सणं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) उनके पास मैंने विनय मूल धर्म समीचीन समझ कर स्वीकार कर लिया है । तात्पर्य इसका यह है कि मैं भी उनको वंदना करने के लिये गया था। उन के मुख से जब मैंने धर्मकथा सुनी तब मुझे उनका सिद्धान्त निर्दोष युक्ति शास्त्र से अविरुद्ध प्रतीत हुआ अतः मैंने उनसे उनके उस धर्म को अंगीकार कर लिया है । सूत्र ॥ २२ ॥ અહંત અરિષ્ટનેમિ પ્રભુના અંતેવાસી ( શિષ્ય) સ્થાપત્યા પુત્ર નામના અનગાર મુનિ પરંપરાને અનુસરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતા સૌગંધિકા नगरीमा सुमेथी माव्या. सने भा नीसा धानमा तर्या छ. (तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ) तेभनी पासे में सारी पेठे समलने વિનય મૂલક ધર્મ સ્વીકાર્યો છે. તાત્પર્ય એ છે કે હું પણ તેમને વંદન કરવા ગયે હતે તેમના શ્રીમુખથી મેં ધર્મકથા સાંભળી. મને તેમના સિદ્ધાતે નિર્દોષ તેમજ શાસ્ત્ર સમ્મત લાગ્યા. એથી મેં તેમની પાસેથી આ धम स्वीय छे. ॥ सूत्र २२ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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