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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ ज्ञाताधर्मकथासूत्र कधर्मविषयकं श्रद्धानं तदपनीय पुनरपितं शौचमूल के धर्मे स्थापयितुं ममोचितमिस्यर्थः । 'त्तिकटु' इतिकत्वा-इदं मनसि धृत्वा, एवम् उक्तप्रकारेण · संपेहेइ' संप्रेक्षते विचारयति, 'संपेहित्ता' संप्रेक्ष्य इत्येवं मनसि विचार्य, परिव्राजकसहस्रेण साधै यत्रैव सौगंधिकानगरी यत्रैव परिव्राजकावसथा परिव्राजकानामावसथ आश्रमः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य परिव्राजकावसथे भाण्डनिक्षेपम् त्रिदण्डाद्युपकरणानां स्थापनं करोति, कृत्वा धातुरक्तवस्त्रपरिहितः गैरिकरागरञ्जितवस्त्रधारी प्रविरलपरिव्राजकैः कतिपयपरिव्राजकाश्रमात् । पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्कामति-नि: सरति । प्रतिनिष्क्रम्य निःसृत्य सौगन्धिकाया नगर्या 'मज्झं मज्झेणं' मध्यमध्येन मध्यमध्यभागेन यत्रैव सुदर्शनस्य गृहं, यत्रैव सुदर्शनस्तत्रैवोपागच्छति । यही योग्य है कि मैं सुदर्शन की विनय मूलक धर्मकी दृष्टिको हटाकर उसे समझाकर स्थापित करूँ। (त्तिकट्ठएवं संपेहेइ ऐसा मनमें धारण कर उसने पूर्वोक्तरूप से उसे समझाने का विचार किया-(संपेहिता परिव्वायगसहस्सेण सद्धि जेणेव सोगंधिया नगरी जेणेव परिव्वायगा. वसहे तेणेव उवागच्छद) विचारकर वह फिर परिव्राजक सहस्र के साथ जहां वह सौगंधिका नगरी और उस मे भी जहां परिव्राजकाश्रम • था वहां आया। (उवागच्छित्ता परिचायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेइ) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भाँडोको रख दिया (करित्ता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिवायगेहिं सद्धिं संपरिवुडे परिवायगवसहीओ पडिनिक्खमई ) रखकर फिर वह गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को पहिरे हुए कुछेक परिव्राजकों के साथ २ उस परिव्राजकाश्रम से बाहर निकला (पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए सनरी शीय भूख म प्रत्ये तेनी श्रद्धा भावी ने. (त्ति कटु एवं संपेहेइ) 0 शत मनमा विया२ ४शन तेणे पक्षांनी म तने समान। रियार ज्या (संपेहित्ता परिवायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ ) विया२ ४ीन ते ५२ से सस પરિવ્રાજકની સાથે જ્યાં તે સૌગધિકા નગરી અને તેમાં પણ જ્યાં પરિવ્રાજ. ४॥श्रम तो त्या मा०ये. ( उजागच्छित्ता परिव्वायगावसहसि भंडनिक्खे करेइ ) मावान तो पोतानी मधी वस्तुस। त्यो भूत्री. (करिता धाउरत्तवत्थपरिहिए पविरलपरिवायगेहिं सद्धिं संगरिबुडे परिव्वायगावसहाओ पडिनिखमई ) भी તે ગરિકધાતુથી રંગાએલાં વસ્ત્રો પહેરીને થોડા પરિવ્રાજકોને સાથે લઈને भाश्रमनी मा२ नभयो (पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झ मझेणं For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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