SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगारधर्मामृतवर्षिणा टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठोवर्णनम् વર तणं से सुदंसणे सुयेणं परिव्वायएणं एवं बुत्ते समाणे आसणाओ अब्भुइ, अब्भुट्टित्ता करयल० सुयं परिव्वायगं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! अरिहओ अरिट्ठनेमिस् अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने ॥ सू० २२ ॥ टीका - तपणं इत्यादि - ततस्तदनन्तरं खलु तस्य शुकस्य परिव्राजकस्य 'इमी से कहाए' अस्याः कथायाः 'लद्वहस्स' लब्धार्थस्य - ज्ञातार्थस्य सतः 'अयमेयावे' अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणरूपः 'अज्झत्थिए' आध्यात्मिकः आत्मगतो विचारः, यावत् समुदपद्यत = प्रादुर्भूतः - एवं खलु सुदर्शनेन शौचमूलं धर्मे ' विष्पजहाय विमजहाय = परित्यज्य विनयमूलो धर्मः 'पडिवन्ने' प्रतिपन्नः स्वीकृतः । तत्तस्मात् श्रेयः खलु मम सुदर्शनस्य दृष्टि-दर्शनं जिनप्रवचने श्रद्धानं ' वामेत ' बमयितुं त्याजयितुं पुनरपि शौचमूलकं धर्ममाख्यातुम्, सुदर्शनस्य यद् विनयमूल ' तरणं तस्स सुयस्स ' इत्यादि । टीकार्थ- (तपणं) इसके बाद (तस्स सुयस्स) उस शुक परिव्राजकको जब (इमी से कहाए लट्ठस्स समाणस्स ) यह ससचार विदित हुआ सुदर्शन से श्रमणोपासक बन गया - यह खबर मिली - तब ( अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था ) उस के मन में यह प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ ( एवं खलु सुदंसणेणं सोयमूलं धम्मं विप्पजहाय विणय मूले धम्मे पडिवन्ने) सुदर्शन शौच मूलक धर्मका परित्याग कर विनयमूलक धर्म कोस्वीकार लिया है, (तं से यं खलु मम सुदंसणस्स दिवामेत्त पुणरवि सोयमूलयं धम्मे आधवित्तए) सो अब मुझे तणं तस्स सुस्स ' इत्यादि । 6 ¿ka' ( agoj ) cup onɛ ( ara gata ) ys ulkaivè quik ( galà कहाए लद्धट्टस्स समाणस्स ) या वात सांलजी सुदर्शन शेड श्रमशोपास था गयाछे, त्यारे ( अयमेव रूवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था ) तेना भनभां विचार स्र्यो- ( एवं खलु सुदंसणेण सोयमूलं धम्मं विष्पजहाय विणयमूले धम् पडवन्ने ) } सुदर्शन शेडे शौय भूल धर्मे त्यने विनय भूसा धर्म स्वीआर्यो छे ( तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिट्ठि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलय धम्मे आवित्त ) तो वे भारे सुदर्शननी विनय भूस धर्म उपरथी श्रद्धा भटा For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy