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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका भ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् ॥ यत्रैव सौगन्धिका नगरी यत्रैव परिव्राजकावसथः, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य परिव्राजकावसथे भाण्डकनिक्षेपं करोति = त्रिदण्डादीन्युपकरणानि स्थापयति, कृत्वा.सांख्यसमयेन सांख्यसिद्धान्तानुसाराचारेण आत्मानं भावयन् विहरति । ततः खलु सौगन्धिकायां नगर्या शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरेषु यावद् राजपथेषु बहुजनोऽन्योन्यस्य परस्परम्-एवमाख्याति - कथयति, एवं खलु शुको नाम परिव्राजक इह अस्यां सौगन्धिकायां नगर्या हव्यमागतः समागतः यावदास्मानं भावयन् विहरति । परिपनिर्माता । मुदर्शनोऽपि निर्गतः। ततः खल्ल स आश्रम था वहां आया। ( उवागच्छित्ता परिचायगावसहंसि मंडलनिक्खेवं करेइ, करित्ता संख समणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरह) आकर उसने उस परिव्राजकाश्रम में अपने भांडों को रख दिया। और रख कर सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति चालू रखता हुआ ठहर गया। (तएणं सोगंधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्क चच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ) इसके बाद उस सौंगंधि का नगरी में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर यावत् राजमार्ग में अनेक जन परस्पर में इस प्रकार बात चीत करने लगे ( एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरह) बंधुओ! शुक नाम का परिव्राजक इस अपनी सौगंधिको नगरी में अभी २ आया है। - वह सांख्य सिद्धान्त के अनुसार अपनी प्रवृत्ति रखता हुआ परिव्राजका श्रम में ठहरा हुआ है। इस बात से परिचित होकर (परिसा निग्गया, सुदंसणो, निग्गए, तएणं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स સૌધિકાનગરી હતી અને જ્યાં પરિવ્રાજકોને આશ્રમ હતું ત્યાં આવ્યું. (उवागच्छित्ता परिवायगावसह सि भंडगनिक्खेव करेइ, करिता सख सभरेण अपाण' भावेमाणे विहरइ) त परिवाना पाश्रममा पायाने तेने પિતાની બધી વસ્તુઓ મૂકી દીધી અને ત્યાં સાંખ્યસિદ્ધાન્તને અનુસરીને घाताना यमनी प्रया२ ४२॥ २२॥ य (तएण सोगंधियाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमोइक्खइ) त्या२४ सोग ધિકા નગરીમાં શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક ચતૂર અને રાજમાર્ગમાં ઘણા માણસે मा शत पात। ४२वा साध्या-(एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागए जाव विहरह) भित्र ! मा म नगरीमा शुॐ नामे में परिवार હમણાં જ આવે છે. સાંખ્ય સિદ્ધાંત અનુસાર તે પિતાની પ્રવૃત્તિઓ આચર तो परिक्षा माश्रममा २७॥ छ. म पातनी ong etin (परिमा For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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