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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्मकथासूत्रे धानानि पञ्चनियमाः तैर्युक्तम् शौचमूलके दशप्रकारं यमनियमसंमेलनेन दशविधं परिव्राजकधमै दानधर्म-दानरूपं धर्म च शौचधर्म-मृद्वारिजनितं शौचरूपं धर्मं च ती. याभिषेक गङ्गादि तीर्थोदकस्नानंच आख्यापयन् प्रख्यापयन्त यन् प्रज्ञापयन् घोषयन्' धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए' धातुरक्तवस्त्रप्रवरपरिहितःगरिकधातुरक्तवस्त्र पवरपरिधानः, गैरिकरक्तवस्त्रधारीत्यर्थ, 'तिदंड-कुंडिय - छत्त - छन्नालयं - कुस-पवित्तय-केसरी हत्थगए' त्रिदण्ड-कुण्डिका-छत्र-षड्ना-लकाङ्कुश-पविप्रक-केसरी हस्तगतः, त्रिदण्डादीनि सप्त हस्तगतानि यस्य स तथा, तत्र त्रिदण्डं मनोवाक्कायदण्डत्रयपरिज्ञानाथै दण्डत्रयं, कुण्डिका कमण्डलुः, छत्रं, प्रसिद्ध, पड़नालक = त्रिकाष्ठिका, अकुशः - प्रसिद्धः-वृक्षपल्लवछेदनार्थ, पवित्रक ताम्रमयमङ्गुलीयकं, केसरी = चीवरखण्डं, परिव्राजकसहस्रेण साध संपरिकृतः धान ये पांच नियम हैं। मिट्टी और पानी से शुद्ध करना इसका नाम शौच है। गंगा आदि तीर्थ के जल में स्नान करना इसका नाम तीर्थाभिषेक है। इन बातों को आख्या न-कथन करता हुआ प्रख्यापन प्ररूपणा करता हुआ यह शुक जिन वस्त्रों को पहिरता था वे गैरिक धातु से रंगे हुए थे। अर्थात् गैरिक धातु से रंगे हुए वस्त्रों को ही यह पहिरता था। (तिदंडकुंडिय, छत्त छलुयंकुसपवित्तयकेसरीहत्थगए परिव्वायगसहस्से णं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवाग इ.) मन, वचन और काय इन तीन दंडों के परिज्ञान के लिये यह दण्ड त्रय का धारी था। कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्टिका, अंकुश, ताम्रमय अंगुलीयक, (अंगूठी) और चीवर खंड ये सब उस के हाथ में थे । १ एक हजार साधु मंडल से यह परिवृत था । सो जहां वह सौगंधिका नगरी थी और उस में भी जहां परिव्राजकों का શૌચ. સંતેષ, તપ, સ્વાધ્યાય, ઈશ્વરપ્રણિધાન એ પાંચ નિયમે છે. માટી અને પાણીથી શુદ્ધ કરવું તે શૌચ કહેવાય છે. ગંગા વગેરે તીર્થ જળમાં નાહવું તે તીથોભિષેક કહેવાય છે. આ યમ નિયમનું આખ્યા વચન તેમજ પ્રરૂપણ કરતે તે શુક પરિવ્રાજક ઐરિક (ગે ) વસ્ત્રો પહેરતે હતે. એટલે र थी । सोते परत। डतो. (तिदंड कुंडिय, छत्त, छलुय कुसप वित्तयकेसरीहत्थगए परिवायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ ) भन, क्यन मने आय मा ત્રણ દંડેના પરિજ્ઞાન માટે તે દંડત્રય (ત્રણદંડ) ધારણ કરતા હતે. કમંડળ છત્ર, ત્રિકાષ્ટિકા, અંકુશ તાંબાની વીટી અને ચીવરખંડ આ બધાં તેના હાથ માં હતાં. એક હજાર સાધુઓ તેની સાથે હતા. તે ફરતે ફરતે ક્યાં For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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