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श्राचायस्वरूपनिरूपण
कुलगामनगररज्ज पयहिअ जो तेप्नु कुणई हु मम । सो नवरि लिंगधारी, सजिमजोएण निस्सारी ॥२४॥
कुल, ग्राम, नगर अथवा किसी राज्य में जाकर तथा वहां रह कर जो उस पर ममत्वभाव रखता है वह संयमसार से रहित केवल वेषधारी है। विहिणा जी उच'एइ, मुत्तं अत्थं च गाहई । मो धरणो सो अ पुएणो य, स बधू मुक्खदायगो ॥२५ । ___ जो प्राचार्य शिष्यसमुदाय को आत्मोत्थान की प्रेरणा करता रहता है उन्हें सूत्रों का अर्थ और उनका मर्म समझाता रहता है, वह आचार्य मुमुक्षुओं को मोक्ष में पहुँचाने वाला उन का परम बन्धु है और वह अति पुण्यवान आचार्य संसार के लिये धन्य है। स एव भव्वसचाण, चक्खुभूय विश्राहिए । दंसेइ जा जिणुदिटटं, अणुटठाणं जहटिठअं ।। २६॥
जो प्राचार्य भव्यप्राणियों को वीतराग भगवान् का यथार्थ कुलग्रामनगरराज्यं, प्रहाय यस्तेषु करोति हु ममत्वम् । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः ।। २४ ।। विधिना यस्तु नोदयति, सूत्रमथं च प्राहयति । स च धन्यः स च पुण्यश्च, स बन्धुर्मोक्षदायकः ॥ २५ ॥ स एव भव्यसत्त्वानां, चतुर्भूतो व्याहृतः । दर्शयति यो जिनोद्दिष्ट-मनुष्ठाणं यथास्थितम् ॥ २६ ॥
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