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गम्छायार पइसायं
पिंडं उवहिं च मिज्ज, उग्गम उप्पारणेसणासुद्धं । चारित्तरवणहा. माहितो होइ स चारित्ती ।।२१।।
भोजन वस्त्र मकान तथा अन्य संयम सहायक सामग्री के उद्गमण श्रादि दोषों को बर्जता हुआ जो अपने चारित्र की रक्षा करता है वास्तव में वह चारित्री हैं । अप्परिस्सावि सम्म, समपासी चेव होइ कज्जेसु । सा रक्वइ चक्खु पिव, मवालबुड्ढाउलं गच्छ ॥ २२॥
उपरोक्त गुणयुक्त आचार्य जो गच्छ के नानाविध कार्यों को समभावपूर्वक करता हुआ अपनी भावनाओं में तनिक भी मलिनता नहीं आने देता, वह श्राचाय गच्छ के छोटे से लेकर बड़े तक सब सदस्यों की अपनी चक्षु के सदृश रक्षा करता है ।। सीआवेइ विहारं, सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धिभो । सो नवरि लिंगधारी, संजमजोएण निस्सारो ॥ २३ ॥ __ जो अज्ञानी आरामतलबी में पड़कर विहार करने में दुःख मानता है वह संयमसार से रहित केवल वेषधारी है ।।
पिण्डमुपधि शय्यां, उद्गमोत्पादनेषणाशुद्धम् । चारित्ररक्षणार्थ, शोधयन् भवति स चारित्री ।। २१ ।। अपरिश्रावी सभ्यक , समदर्शी चैव भवति कार्येषु । स रक्षतिक्षुिरिन सबालवृद्धाकुलं गच्छम् ।। २२ ।। सीदयति विहारं, सुखशीलगुणैर्योऽबुद्धिकः । स नवरि लिङ्गधारी, संयमयोगेन निस्सारः ॥ २३ ॥
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