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गच्छायार पइएणय मार्ग दिखाता है वह उन के लिये चतुभूत होता है ऐसा ज्ञानियों का कथन है।। नित्थयरसमा सूरी, सम्म जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो सो, कापुरिसो न सप्पुरिसो । २७ ॥ __ जो आचार्य वीतराग भगवान के सच्चे मार्ग का संसार में सर्वव्यापी प्रचार करता है वह तीर्थंकर के सदृश माना जाता है
और जो आचार्य भगवान की आज्ञा का न तो स्वयं सन्यक्नया पालन करता है और न हि यथार्थरूपेण वान करता है, वह सत्पुरुषों की कोटि में नहीं गिना जा सकता ॥ भट्टायारो सूरी, भट्टायाराणुविवखश्रो सूरी उम्मग्गठिो सूरी, तिन्निवि मग्गं पणासति ॥ - || लीन प्रकार के प्राचार्य, भगवान् के मार्ग को दूषित व.रते हैं (१) वह आचार्य जो स्वयं आचारभ्रष्ट है। (२) वह आचार्य जो स्वयं तो आचारभ्रष्ट नहीं परन्तु
अापने गच्छ के प्राचारभ्रष्टों की उपेक्षा करता है
अर्थात उन का सुधार नहीं करना । (३) जो प्राचार्य भगवान् की श्राज्ञा के विरुद्ध
प्ररूपण तथा आचरण करता है। तीर्थकरसमः सूरिः, सम्यग् यो जिनमतं प्रकाशयति । आज्ञामतिक्राम्यन स, कापुरुषो न सत्पुरुषः ।। २७ ।। भ्रष्टाचारः सूरि-भ्रष्टाचाराणामुपेक्षकः सूरिः। उन्मार्गस्थितः सूरि-स्त्रयोऽपि मार्ग प्रणाशयन्ति ।। २८ ।।
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