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गच्छायार पइराट
और समाचारी नहीं सिखाता तथा नवदाचित शिष्यों की लाड प्यार में रखता है उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करता है ऐसा आचार्य अपने शिष्यों का गुरु नहीं अपितु शत्रु है, उन का अति करने वाला है ।
जीहार विलिहितो, न भओ सारणा जहिं नत्थि । इंटेवि ताडतो, समग्र सारणा जत्थ ॥ १७ ॥
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जिल्हा के द्वारा मीठे मीठे वचन बोलता हुआ जो आचार्य अपने के आचार की रक्षा नहीं कर सकता वह आचार्य अपने गच्छ का कल्याणकर्ता नहीं माना जाता, इस के विपरीत मीठे मीठे वचन न भी बोलकर अपि दण्ड-यष्टि से भी आचार्य अपने शिष्यों को तोड़ता है और उस से गच्छ की रक्षा होती है, तो वह आचार्य कल्याणरूप है |
गुरु के प्रमाद करने पर शिष्य का भी क्या कर्तव्य है इस विषय में कहते है - सीसोऽविवेरिओ सोउ, जो गुरुं न विबोहए. पमायमइरावत्थं, सामायारीविराहयं ।। १८ ।
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जिह्वया विलिहन, न भद्रकः सारणा ( स्माररणा ) यत्र नास्ति । दण्डेनापि ताडयन, सुभद्रकः सारणा यत्र ॥ १७ ॥ " डंडे " दशन-दष्ट- दग्ध- दोला-दण्ड-दर-दम्भ-दर्भ- कदनदोहदे दो वाडः ||११२१७॥ इति सूत्रेण दकारस्य वा डकारः. 'वर्गेन्त्यो वा ॥६३॥ इति सूत्रेण टवर्गस्यान्त्यो वा ॥ शिष्योऽपि वैरी सतु, यो गुरु न विबोधयति । प्रमादमदिराग्रस्तं सामाचारीविराधकम् ॥ ८
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