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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org गच्छायार पइराट और समाचारी नहीं सिखाता तथा नवदाचित शिष्यों की लाड प्यार में रखता है उन्हें सन्मार्ग पर स्थित नहीं करता है ऐसा आचार्य अपने शिष्यों का गुरु नहीं अपितु शत्रु है, उन का अति करने वाला है । जीहार विलिहितो, न भओ सारणा जहिं नत्थि । इंटेवि ताडतो, समग्र सारणा जत्थ ॥ १७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिल्हा के द्वारा मीठे मीठे वचन बोलता हुआ जो आचार्य अपने के आचार की रक्षा नहीं कर सकता वह आचार्य अपने गच्छ का कल्याणकर्ता नहीं माना जाता, इस के विपरीत मीठे मीठे वचन न भी बोलकर अपि दण्ड-यष्टि से भी आचार्य अपने शिष्यों को तोड़ता है और उस से गच्छ की रक्षा होती है, तो वह आचार्य कल्याणरूप है | गुरु के प्रमाद करने पर शिष्य का भी क्या कर्तव्य है इस विषय में कहते है - सीसोऽविवेरिओ सोउ, जो गुरुं न विबोहए. पमायमइरावत्थं, सामायारीविराहयं ।। १८ । , जिह्वया विलिहन, न भद्रकः सारणा ( स्माररणा ) यत्र नास्ति । दण्डेनापि ताडयन, सुभद्रकः सारणा यत्र ॥ १७ ॥ " डंडे " दशन-दष्ट- दग्ध- दोला-दण्ड-दर-दम्भ-दर्भ- कदनदोहदे दो वाडः ||११२१७॥ इति सूत्रेण दकारस्य वा डकारः. 'वर्गेन्त्यो वा ॥६३॥ इति सूत्रेण टवर्गस्यान्त्यो वा ॥ शिष्योऽपि वैरी सतु, यो गुरु न विबोधयति । प्रमादमदिराग्रस्तं सामाचारीविराधकम् ॥ ८ For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
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