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श्राचार्यस्वरूप निपरण
देसंखितं त जाणित्ता, वत्थं प उवस्मयं ।
संग माहूरच, सुनत्थं च निहालई ॥ १४ ॥
गच्छ का आचार्य श्रागमों का चिन्तन मनन तथा उस के अनुसार आचरण करता हुआ साधुवर्ग का संग्रह करता है और देशकालानुसार उनके लिये वस्त्र पात्र तथा योग्य उपाश्रय ( वसति) आदि का ध्यान रखता है |
जो आचार्य अपने शिष्यों की सार संभाल नहीं करता अव उस के विषय में कहते हैं
संग
विहिणा, न करेइ अ जो गणी |
समति दिक्खित्चा, सामायारिं न पाए। १५।।
चालाण जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिपए । न सम्ममग्न गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिओ ।। २६ ।
जो आचार्य साधुओं का विधिपूर्वक संग्रह और उनकी रक्षा नहीं करता है । साधु साध्वियों को दीक्षा तो दे देता है परन्तु उनको साधुओं के नियमोपनियमों का पालन नहीं करवाता
देशं क्षेत्रं तु ज्ञात्वा वस्त्रं पात्र-पाश्रयम् ।
संग्रहीत साधुवर्ग च, सूत्रार्थं च निभालयति ॥ १४ ॥ विधिना न करोति च यो गणी ।
श्रम श्रमणी तु दाक्षित्वा, सामाचारिं न ग्राहयेत् ॥ २२ ॥
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बालानां यस्तु शिष्याणां जिह्वया उपलिम्पेत् । न सम्यगमार्ग प्राहयति, स सूरिर्जानीहि वैरी ॥ १६ ॥
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