________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदुक्तं व्यवहारभाष्ये अहाछंदस्स परूवण उस्सुत्ता दुविह होइ णायव्वा / चरणेसु गईसु जा, तत्थ चरणे इमा होइ / / 1 / / पडिलेहणि-मुहपोत्तिय-रयहरण-निसिज-पायमत्तए पट्टे / पडलाई चोल उण्णादसिआ पडिलेहणापोत्तं // 2 // दंतछिन्नमलितं हरियहिय मजणा यणं त (छत्र) स्स / अणुवाइ अणणुवाईपरूव चरणे गतीसुपि // 3 // अणुवाइति नजइ जुत्तीपडियं खु भासए एसो / जं. पुण सुत्तावेयं तं होइ अणाणुवाइति // सागारिआइपलियंक-णिसिज्जासेवणा य गिहिपते / णिग्गंथिचेहणाइ पडिसेहो मासकप्पस्स / / चारे वेरजे वा पढमसमोसरण तह णितिएसु / सुण्णे अक्कपिए अ अणाउंछे य संभोगे // किंवा अकप्पिएणं गहियं फासुपि होइ उ अभोजं / अमाउंछ को वा होइ गुणो कोप्पए गहिए / / पंचमहव्वयधारी समणा सबेवि किं ण भुजति / इय चरणवितथवादी इत्तो वुच्छं गईसुं तु॥ यथाछन्स्य प्ररूपणा उत्सूत्रा द्विविधा भवति ज्ञातव्या / चरणेषु गतिषु या तत्र चरणे इयं भवति // 1 // प्रतिलेखनी-मुखपोतिका रजोहरण-निषद्या पात्रमात्रके पट्टे। पटलानि चोल(पट्टः) ऊर्णादशा प्रतिलेखनापोतं // 2 // दन्तच्छिन्नमलिप्तं हरितस्थित मार्जना चाछन्नस्य / अनुपात्यनुपातिप्ररूपणं चरणे गतिवपि // 3 // अनुपातीति शायते युक्तिपतितं खलु भाषते एषः। यत्पुनः सूत्रापेतं तद् भवति अननुपातीति // सागारिकादिपर्यनिषद्यासेवना च गृहिपात्रे / निर्ग्रन्थीस्थानादि प्रतिषेधो मासकल्पस्य // थारे वैराज्ये वा प्रथमसमवसरणे तथा नित्येषु / शून्ये अकल्पिके चाहातोब्छे च संभोगे // . किंवदकल्पिकेन गृहीतप्रासुकमपि भवति स्वभोज्यन् / अक्षातोञ्छं को वा भवति गुणो कल्पिकेन गृहाते // पशमहावतधारिणो श्रमणाः सर्वेऽपि किं न भुलते।। इति धरणवितथवादी तो वक्ष्ये गति / For Private and Personal Use Only