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श्रीदशवैकालिक श्रीहारि० वृत्तियुतम् ||३७८॥
पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंतो गुणसुट्टिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा ।। सूत्रम् ३॥
जे आवि नागंडहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिअंपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ।। सूत्रम् ४ ।।
आसीविसो वावि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउपरं नु कुना? आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो।। सूत्रम् ॥
जो पावगंजलि अमवक्तमिजा, आसीविसं वावि हु कोवइजा। जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् ६॥
सिआ ह से पावय नो डहिजा, आसीविसो वा कुविओन भने । सिआ विसं हालहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए। सूत्रम् ७॥
जो पव्वयं सिरसा भिन्तुमिच्छे, सुत्तं व सीहं पडिबोहइजा। जो वा दए सत्ति अग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ।। सूत्रम् ।
नवममध्ययन विनयसमाधिः प्रथमोद्देशकः सूत्रम् ३-१० उदाहरणपूर्वकं दोषप्ररूपणम।
॥३७८।।
सिआ हसीसेण गिरिपि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओन भक्खे। सिआन भिदिज वसत्तिअगं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥सूत्रम् ९॥
आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो। तम्हा अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा। सूत्रम् १०॥
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