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४५३ जिनवरनी वाणी, भाव सहित अति उलट आणी, ते नीसुणी शुल प्राणी ॥ मद मच्छर हरवे सपराणी, सरस सुकोमल सुधा समाणी, अभिनव गुण मणि खाणी॥ चौद पूर्वने अंग अगियार, दश पयन्ना उपांग बार, छ छेदे मुल सत्र चार ॥ नंदीने अनुयोग द्वार. ए सवि समयतणुं अधिकार, अठमी दिन सुविचार ॥३॥ चंद्रप्रभ जिन सेवक जक्ष, विजयनामे ते प्रत्यक्ष समकित धारी दक्ष ॥ चउविह संघ तणा जे लक्ष, तस कामित देवे सुवृदा, वारे विघ्न विपक्ष ॥ अष्टमहासिद्धि भोग अपार, अष्टदिशे कीरति विस्तार, सकल सुजन परिवार ॥ अशरण अबला दीन आधार, राज रत्नवाचक सुखकार, अष्टमी पोसह सार॥४॥ इति आठमनी थोय.
॥ पजुसणनी थोय.॥ ॥ पर्व पजुसण पुन्ये कीजे, सत्तरभेदी जिन पूजा रचीजे, वाजिंत्र नाद सणीजे ॥ परभावना श्रीफलनी कीजे, याचक जनने दानज दीजे, जीव अमारी करीजे ॥ मनुज जनम फल लाहो लीजे, चोथ छह अट्टइ
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