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जिणवर ॥ १० ॥ पुण्यवंत प्राणि हुस्ये, प्राहिं मध्यम जाति ॥ दाता भोक्ता ऋद्धिवंत, निर्मल अवदात || साधु असाधु जति वदे, तव सरीखा किजे ॥ ते बहु भद्रक भविणे, स्यो उलंभो दीजे ॥११॥ राजा मंत्रिपरे सु साधु, आपोपुं गोपी ॥ चारित्र सुधु राखस्ये, सवि पाप विलोपि ॥ सप्तम सुपन विचार वीर, जिनवरे इम कहियो || अष्टम सुपन तग्गो विचार, सुणि मन गहग हिओ ॥ १२ ॥ न लहे जिनमतमात्र जेह, तेह पात्र न कहिएं ॥ दिधानुं परभव पुण्य फल, कांइ न लहिये || पात्र अपात्र विचार भेद, भोला नवि लस्ये ॥ पुण्य अर्थे ते अर्थ आथ, कुपात्रे देहस्ये ॥ ॥ १३ ॥ उखर भूमि दृष्ट बिज, तेहनो फल कहिएं ॥ अष्टम सुपन विचार ईम, राजा मन ग्रहियें || एह अनागत सवि सरुप, जाणि तेणे काले ॥ दीक्षा लीधी वीर पास, राजा पुन्यपाले ॥ १४ ॥
|| ढाल पांचमी राग गोडी ॥
॥ इंद्रभूति अवसर लहि रे, पुछे कहो जिनराय ॥ इयं आगल हवे होयस्येरे, तारण तरण जीहाजोरे
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