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जोतां सुर नरनां मन मोहे ॥ प्रभु रमे राजकुंवर शुं वनमा, मायतायने आनंद मनमां ॥३॥ बल अतुल वृषनगति वीर, इंद्रे सभामा कह्यो जिनधीर ॥ एक सुर मूढ वात न माने, आव्यो परखवा वन रमवाने ॥४॥ अहि थइ वृक्ष आमलीये राख्यो, प्रभु हाथे झाली दूरे नाख्यो ॥ वळी बालक थइ आवी रमिओ, हारी वीरने खांधे लइ गमिओ॥ ५॥ मायताय दुःख धरी कहे मित्र, कोइ वर्द्धमानने लइ गयो शत्रु ॥जातो सुर वाध्यो गगने मिथ्याती, वीरे मुष्टीये हण्यो पडयो धरती ॥ ६॥ पाय नमी नाम दीधुं महावीर, जेहवो इंद्र कह्यो तेवो धीर ॥ सुर वळिओ प्रभु आ व्या रंगे, माय तायने उलट अंगे ॥७॥
॥ ढाल छठी ॥ वस्तु-राय उठव राय उव्व करे मनरंग, ले. खकशाळाए सुत ठवे ॥ वीर ज्ञान राजा न जाणे, तव सौधर्म इंद आविया, पूछे ग्रंथ स्वामी वखाणे ॥ व्याकरण जैन तिहां कीओ, आनंद्यो सुरराय ॥ वचन वदे प्रनु भारती, पंडयो विस्मय थाय ॥ २ ॥
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