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૨૨ક
नगर अमारे पाछा फरो ॥ तुज कारण हुं मुकुं जोग, जो तुं मुजस्युं विलसे भोग ॥ ११ ॥ एक वचन मानो सुंदरी, आगल संजम लेजो फरी॥ कुप छांयडी करपि जेम धन्न, विसमे ठामे उग्युं छे वन ॥ १२॥ तेना फल जेम तिहां विसमे, तिम तुं योवन का एळे गमे॥ राजुल कहे सुण मूढ गत आण, पश्चिम दीश उगे जो भाण ॥ १३ ।। चंद्र थकी वरसे अंगार, तोहे न वालं तुज भरथार ॥ पवंत पाणी पाछा चढे, कायर सरा ज्यम जो वढे ॥१४॥ पाप करीने पामे लील. तोए न खंग माझं शील ॥ वमी वस्तुने शं आदरे, विषय काजे कां दुर्गति फरे ॥ १५ ॥ रेहेनेमि मन झांखो थयो, हे हे वचन किश्योमें कह्यो । उत्तम कु. लनी न रही लाज, धिग धिग तुं रे विरुआ काज ॥ ॥ १६ ॥ आतम निंदा करतो आप, मुज भाइ पोढां लाग्यां पाप ॥ नेम तणा जे वंदे पाय, लेई संयभने मुक्ति जाय ॥ १७ ॥ राजीमती तिहां वहुतप तपे, अरिहंत नाम हृदयमां जपे ॥ नेमे तारी घरनी नार, राजुल मुकी मुगति मोजार ॥१८॥
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