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प्रगट्यां तिहां बहु प्रेम ॥ उत्पत्ति जोई न तुं आपणी, समजी मुके ते मती पापिणी ॥ ११ ॥ मात पिताने जोगे वली, शोणी शुक्र गया बहु मिली । जग सघलो तिहां जई उपनो, नानो मोटो एम नीपनो ॥१२॥ तो ते साथे शो बली रंग, न करं नारीकेरो संग ॥ भोग करतां हिंसा बहु, नरनारी तुमे सुणजो सहू ॥ १३ ॥ बे इंद्रि पंचेद्रि जेह, नव नव लाख कहीजे तेह ॥ मनुष्य असंख्य संमूर्छिम जाणी, भोग करंतां तेहनी हाण ॥ १४ ॥ इस्यां वचन जब नेमे कह्यां, अंतेउर सवि झांखां थयां ॥ कृष्ण राय प्रत्ये जइ कहे, नेमनाथ गृह वासे नवि रहे ॥ १५ ॥ गौरी गंधारी लक्ष्मणा, रुक्मिणी बोल कहे तिहां घणा ॥ जंबुवतीने सुसीमा सती, सत्यभामाने पद्मावती ॥१६॥ पटराणी ए हरिनी हशे, देवर मती कांताहारी खसे ॥ ऋषभ देव साम नवि जोय, जन्म कुंवारो न रह्यो कोय ॥ १७ ॥ भरतराय तो परण्यो खरी, चउसठि सहस जो अंतेउरी॥ हवडां तारो बंधव भलो, बत्रीस सहस निरवहे एकलो ॥१८॥ एक थकी थाये आकलो, परणा
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