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૨૭૨ श्रावकनां व्रत बार ॥ भविक० ॥ २॥ पंचुंबर चारे वियगजी, विष सह माटीरे हिम॥रात्रीभोजनने कह्याजी, बहु बीजोनो नेम ॥ भविक० ॥३॥ घोलवमां वली रींगणांजी, अनंतकाय बत्रीस ॥ अणजाण्यां फल फूलडांजी, संधाणां निशदीश ॥भविक० ॥४॥ चलित अन्न वाशी थयुंजी, तुच्छ सहु फल दक्ष ॥ धर्मी नर खाये नहींजी, ए बावीस अनक्ष ॥ भविक० ॥५॥ न करे निद्धंस पणेजी, घरना आरंभ धीर ॥ जीवतणी जयणा घणीजी, न पीये अणगल नीर ॥भविक० ॥६॥घृतपरे पाणी वावरेजी, बीये करतां पाप ॥सामायिक व्रत पौषधेजी, टाले भवना ताप ॥ भविक० ॥७॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनीजी, सेवा भक्ति सदीव ॥ धर्म शास्त्र सुणतां थकांजी. समजे कोमल जीव ।। भविका ॥८॥ मास मासने आंतरेजी, कुश अग्रे भुंजे वाल॥ कला न पहोचे शोलमीजी, श्री जिनधर्म विशाल । भविक० ॥९॥ जिन धर्म मुक्ति पुरी दीयेजी, चउ. गति भ्रमण मिथ्यात्व ॥ एम जिनहर्ष प्रकाशीयेजी, त्रीजुं तत्त्व विख्यात ॥ भविक०॥१०॥
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