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- १७३ ॥ ढाल ॥ ७ ॥ मधुकर आज रहोरे मत चलो ए देशी ॥
॥श्री जिनधर्म आराधियेजी, करी निज समकित शुद्ध ॥ भवियण । तप जप किरिया कीधलीजी, लेखे पडे विशुद्ध ॥ भ० ॥ श्री० ॥१॥ कंचन कशी कशी लिजियेजी, नाणुं लीजे परीख ॥ भ० देव धर्म गुरु जोईनेजी, आदरीये सुणी शीख ।। भ०॥श्री॥२॥ कुगुरु कुदेव कुधर्मनेजी, परिहरिये विष जेम॥भ०॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनेजी, ग्रहीये अमृत तेम ॥ भ०॥श्री. ॥३॥ मूल धर्म ते जिने कह्योजी, समकित सुरतरु एह ॥ भ० ॥ भव जव सुख संपत्ति थकीजी, समकि. तशुं धरी नेह ॥ भ० ॥ श्री० ॥ ४ ॥ सत्तरसे छत्रीस समेजी, नभ शुदी दशमी दस ॥भ॥ समकित सित्तरी ए रचीजी, पुरपाटण सुजगीश ॥ भ० ॥ श्री०॥ ५ ॥ भणजो गुणजो भावशुंजी, लेशो अविचळ श्रेय ॥भ०॥ शांति हर्ष वाचक तणोजी, कहे जिन हर्ष विनेय ॥ भ० ॥ श्री० ॥ ६ ॥ इति श्री समकितसित्तरी संपूर्ण ॥
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