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१६० जात गयणे फिरेजी, इणी परे सयल विनाण ॥ सु० ॥ ७ ॥ वायु सुंठथी उपशमेजी, हरडे करे विरेच ॥ सीजे नहिं कण कांगडुं जी, शक्ति स्वभाव अनेक ॥ सु०॥ ८॥ देश विशेषे काष्ठना जी, भूमिमां थाय पहाण | शंख अस्तिनो नीपजे जी, क्षेत्र स्वभाव प्रमाण ॥ सु०॥ ९॥ रवि तातो शशी शीतलोजी, भव्यादिक बहु भाव ॥ छए द्रव्य आप आपणांजी, न तजे कोई स्वभाव ॥सु०॥१०॥ इति स्वानाववाद ॥
॥ ढाल ॥३॥ कपुर होय अति उजलोरे ॥ ए देशी ॥
॥ काल किस्युं करे बापडोजी, वस्तु स्वभाव अकज || जो नवि होये भवितव्यताजी, तो केम सिजे कजरे ॥ प्राणी म करो मन जंजाल॥ भाविनाव निहालरे ॥प्रा०॥१॥ए आंकणी ॥ जलनिधि तरे जंगल फरेजी, कोडी जतन करे कोय ॥ अणभावी होवे नहीं जी, भावी होयते होयरे ॥प्रा० ॥२॥ आंबे मोर वसंतमांजी, डाले डाले केई लाख ॥ केई खर्या केई खाखटीजी, केई आधां केई साखरे ॥प्रा० ॥३॥ बाउल जेमभवितव्यताजी, जिण जिण दिशि उजाय।।
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