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अङ्ग त्रयोदशम्
व्याल स्वरूप (Various forms of Vyala)
दक्षिण भारत के देवालयों में हम पैरों पर खड़े हुए सिंह जैसे प्राणी का विशाल कद का शिल्प देखते हैं। उसे 'ब्याल' कहते हैं। दसवीं शताब्दी के 'ज्ञान रत्तकोश' नामक शिल्प-ग्रंथ में व्याल को 'वरालक' कहा गया है। गुजरात, सौराष्ट्र और राजस्थान के शिल्पी इसे 'विरालिका' कहते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में उसे 'याली' या 'दाळी के नाम से पहचाना जाता है । दक्षिण भारत के कई लोग उसे 'विराल' या 'विरालिका' भी कहते हैं।
'अपराजित सूत्र' के २३३ वें अध्याय में व्याल के स्वरूप वर्णित हैं। 'समरांगण सूत्रधार' में भी सोलह स्वरूपों का वर्णन है। दोनों ग्रंथों में पाठ स्वरूप समान हैं और बाकी आठ एक दूसरे से भिन्न हैं । इसलिये दोनों ग्रंथों के कुल स्वरूप (१६+८) चौबीस होते हैं।
'अपराजित सूत्र' में वर्णित सोलह स्वरूप इस प्रकार हैं: सिंह, हाथी, अश्व, नर, नंदी, मेंढा, पोपट, सूअर, पाड़ा, चूहा, जंतु, वानर, हंस, कुक्कुट, मोर और तीन मस्तकयुक्त नाग । ___ 'समरांगण सूत्रधार' में इस सोलह स्वरूपों से भिन्न जो आठ स्वरूप हैं, वे इस प्रकार है: हरिण, शार्दुल, शियाल, सांभर, श्वान, गदर्भ, बकरा और गिद्ध।
व्याल के ये चौबीसों स्वरूप शिल्प में सभी जगह देखने में नहीं आते। सिंह, गज, व्याघ्र, ग्रास, नर या मकरमख के व्याल बहुत प्रचलित हैं। और वे बहुत-सी जगहों पर दिखाई देते हैं । अन्य स्वरूप शिल्प में कम मिलते हैं। जबकि वे चित्रकला में अधिक दिखाई देते हैं । व्याघ्र, ग्रास या मकरमुख व्याल शिल्पग्रंथों में वर्णित नहीं है, फिर भी शिल्पियों ने अपनी कल्पना से उसे पत्थरों में शिल्पित किया है!
ब्याल का शरीर सिंह जैसा है। छोटे कदवाले उसके पैर हैं, और वह दो पैरों पर खड़ा होता है। उसके मुख की जगह वनचर, गायचर, पशु, पक्षी और मनुष्य का मुख उकेरा जाता है। व्याल के मुख में लगाम डाल कर उसकी पीठ पर सवार एक मनुष्य भी उकेरा जाता है । व्याल का एक पैर ऊंचा रहता है, उसके नीचे बहुधा ढाल, तलवार, भाला या अन्य शस्त्रधारी योद्धा का रूप उकेरा जाता है। कभी-कभी हाथी, वानर, स्वान आदि प्राणी, उसके पैर के नीचे छिपकर बैठे हुए भी उकेरे जाते हैं।
देवी-देवता या दिवाल आदि मूर्तियों की दोनों ओर की छोटी स्तंभिका पर भी विरालिका का स्वरूप उकेरा जाता है। कभी कभी मूर्ति की शोभा बढ़ाने के लिये परिवार की दोनों ओर व्याल उकेरे जाते हैं।
व्याल स्वरूपों के इस परंपरागत स्थान के अलावा देवालय की अन्य जगह पर भी शिल्पी अपनी सूझ के अनुसार अलंकार के रूप में ऐसे स्वरूप उकेरते हैं। जैसे कि वारिमार्ग (जलान्तर) में।
देवालय को बाह्य दीवार, जो मंडोवर कही जाती है, यहां व्याल स्वरूप पूरे कद में (लाइफ साइज) में शिल्पित मिलते हैं। मंडोवर के आंतरिक भाग और गर्भगृह के बाहर प्रदक्षिणा-मार्ग के स्तंभों पर भी ऐसे स्वरूप उकेरे होते हैं। दक्षिण भारत के दसवीं शताब्दी के मंदिरों में तो लगभग ८-१० फूट की ऊंचाई के बहुत से व्याल स्वरूप उकेरे हुए हैं। द्रविड़ प्रदेश के मंदिरों के विशाल प्रदक्षिणा मार्ग के दोनों ओर के स्तंभों की पंक्तियों में व्याल के आठ-दस फुट ऊंचाई के भव्य स्वरूप दिखाई देते हैं। उड़ीसा के राजारानी मंदिर में भी व्याल
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